त्वचा-गांठ रोग (लम्पि-स्किन डिसीज या लम्पि रोग, एलएसडी): भारत में फैला या फिर फैलाया गया?
डॉ. संदीप पहल, पूर्व सदस्य उत्तर प्रदेश गौ सेवा आयोग, लखनऊ, अधिवक्ता देशी
गौ अनुसन्धान संस्थान, मेरठ, उ०प्र०
डॉ. भोज राज सिंह, विभागाध्यक्ष जानपदिक रोग (एपिडेमियोलॉजी), भारतीय पशु
चिकित्सा अनुसन्धान
संस्थान, इज़्ज़तनगर,
बरेली, उ०प्र०
DOI: 10.13140/RG.2.2.28684.59527,
https://www.researchgate.net/publication/364196079_tvaca-gantha_roga_lampi-skina_disija_ya_lampi_roga_ela'esadi_bharata_mem_phaila_ya_phira_phailaya_gaya
त्वचा गांठ
रोग (लम्पि-स्किन डिसीज या लम्पि
रोग, एलएसडी) एक सीमा-पारीय (ट्रांस-बॉउंड्री) एवं
सूचनीय (नोटिफायबल)
रोग है
और जब
यह रोग
भारत में
पहले पहल
२०१९ में
उड़ीसा में
नवंबर में
देखा गया
तथा भारतीय
पशु चिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान, इज़्ज़तनगर,
बरेली, उ०प्र०, के
पशु रोग
अनुसन्धान और
निदान केंद्र (Centre for Animal Disease Research and
Diagnosis, CADRAD) के
वैज्ञानिकों के
दावे के
अनुसार उन्होंने
प्रथम बार
इसके विषाणु
को विलगित
किया. परन्तु उन्हें
इस सूचनीय
रोग के
बारे में
विषाणु विलगन
की प्रथम
सूचना प्रकाशित
करने की
अनुमति नहीं
मिली. यदि
इस सूचनीय
रोग से
ग्रसित पशुओं
को २०१९
में ही
अलग करके
इलाज किया
जाता और
राष्ट्रीय उच्च
सुरक्षा पशुरोग
संस्थान, भोपाल
तथा भारतीय
पशु चिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान,
इज्जतनगर अपना
काम ठीक
से करते
हुए इस
रोग को
गंभीरता लेकर
कार्य करते
तो आज
देश में
गौधन की
ऐसी बुरी
स्थिति नहीं हुई
होती.
लम्पि-स्किन डिसीज के फैलने या फैलाने से किसे लाभ हुआ?
१.
राष्ट्रीय अश्व
अनुसंधान संस्थान
एवं इसके
वैज्ञानिकों को
जिन्हे नाम
और पैसा
दोनों मिले
हैं.
२.
गोट-पॉक्स
वैक्सीन बनाने
वालों (भारतीय
पशु चिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान, इज़्ज़तनगर,
बरेली, उ०प्र०) को
जिनकी ना
बिकने वाली
वैक्सीन खूब
बिकने लगी,
हेस्टर के
अलावा भी
पांच वैक्सीन
निर्माताओं ने
उनकी इस
तकनीकी को
आनन्-फानन
में खरीद
लिया और
वैक्सीन की
हर खुराक
के बिकने
से उन्हें
रायल्टी अलग
से प्राप्त हुई.
३.
गोट-पॉक्स
वैक्सीन बेचने
वालों (Hester Bioscience Pvt. Ltd) को, जिनकी
जो वैक्सीन
वर्षों से
बिक नहीं
रही थी
अब मुंह-मांगे दामों
में बिकने
लगी है.
४.
राष्ट्रीय और
प्रांतीय पशुपालन
एवं पशु-चिकित्सा विभागों
को जिन्हे
वैक्सीन खरीदने
पर स्वतः
ही कमीशन
मिलने लगा.
५.
भारतीय कृषि
अनुसंधान परिषद्
को तथा
राष्ट्रीय नेताओं
को यह
दिखाने का
मौका मिला
कि भारत
ने इतनी
शीघ्रता से
लम्पि-स्किन
डिसीज से
लड़ने के
लिए वैक्सीन
का निर्माण
रिकॉर्ड समय
में करके
गौरक्षा की
है.
६.
गौशाला संचालकों
को जिन्हे
अचानक ही
गौशालाओं में
गायों की
बढ़ती संख्या
से मुक्ति
मिल रही
है.
लम्पि-स्किन डिसीज के फैलने या फैलाने से हानि किसे हुई?
१.
गौ-धन
की, जो
सरकारी नियमों
और आदेशों
के चलते
पहले से
ही मारा-मारा फिर
रहा है
अब बेमौत
मर रहा
है.
२.
किसानो और
पशु-पालकों
को, जो
पहले से
ही गाय
को पालने
से प्रताड़ित
महसूस कर
रहे थे
उनकी बची हुई कुछ गायों को इस रोग ने लील लिया.
रोग-परिचय
लम्पि-स्किन
रोग प्रथम
बार एक
महामारी के
तौर पर
१९२९ में
जाम्बिया में
प्रकट हुआ
था. उसके
बाद १९४३
और १९४५
में बोत्सवाना,
जिम्बाबवे और
दक्षिण अफ़्रीकी
गणतंत्र में
लक्षित हुआ
और फिर
अचानक लगभग
७५ साल
बाद २०१९
में यह
एक साथ
दक्षिण-पूर्वी
एशिया के
कई देशों
प्रकट हुआ,
कोई नहीं
जानता क्यों
और कैसे?
लम्पि-स्किन रोग मुख्यतः
गाय-जाति
के पशुओं
में होने
वाला, और
बहुत
पहले
से जाना
पहचाना
रोग है. इस रोग की पहचान
शरीर
पर पड़ी गांठों
से आसानी
से हो जाति
है परन्तु
रोग गांठे
बनने
से काफी
पहले
ही पशु को रोग/संक्रमण
लग चुका
होता
है, इसकी त्वरित
पहचान
हेतु
पीसीआर
टेस्ट
किया
जाता
है जिससे
शरीर
से निकलने
वाले
द्रव्यों
में रोग कारक
जीवाणु
के डीएनए
को पहचाना
जाता
है. कभी-कभी इस रोग से मिलते
जुलते
लक्षण
बोवाइन
हर्पीस
विषाणु-२ के संक्रमण
से भी होते
हैं और उस रोग को मिथ्या
लम्पि-स्किन रोग भी कहते हैं.
रोग
का कारण
लम्पि-स्किन रोग एक कैप्री-पॉक्स जाति
के डीएनए
विषाणु
के कारण होता है. इसी जाति
में गोट-पॉक्स और सीप-पॉक्स विषाणु
भी आते हैं जो क्रमशः
बकरियों
और भेड़ों
में चेचक
रोग उत्पन्न
करते
हैं.
परन्तु
गोट-पॉक्स और सीप-पॉक्स विषाणुओं
के ऐसे भी कुछ प्रतिरूप
मिले
हैं जो भेड़ और बकरिओं
में सामान
रूप से रोग-कारक होते
हैं.
गाय,
भैंस,
भेड़ और बकरिओं
के अलावा
भी इस जाति
के विषाणु
दूसरे
खुर वाले
पालतू
या जंगली
पशुओं
में चेचक
रोग उत्पन्न कर
सकते
हैं.
हाल ही में प्रकाशित
शोध के अनुसार
लम्पि-स्किन रोग मनुष्यों
को भी प्रभावित
कर सकता
है अतः इसे पशुजन्य
रोगों
की श्रेणी
में नवागंतुक
रोग भी कहा जा सकता
है.
रोग का प्रसार
सन १९९० से पहले
तक यह रोग केवल
सब-सहारा
अफ्रीका
तक सीमित
था परन्तु
अब यह एशिया
के बहुत
से देशों
में फ़ैल चुका
है. प्राकृतिक
रूप से लम्पि-स्किन रोग गाय,
भैंस,
हिरन
एवं बारहसिंघा
में होता
है परन्तु
कभी कभी इम्पाला,
और जिराफ
में भी हो सकता
है. हर्पीज
विषाणु
ग्रस्त
मनुष्यों
में साधारण संपर्क
से या लम्पि-स्किन
रोग के विषाणु
के श्वास
द्वारा
फेफड़ों
में प्रवेश
करने
के कारण
(प्रयोगशाला
में इस विषाणु
पर कार्य
करने
वालों
में या रोगी पशु का दूध दुहते समय) मृत्यु कारक
संक्रमण
हो सकता
है शरीर
पर मुख्यतया
हाथों
पर गायों
की तरह ही गांठे
हो सकती
हैं.
इस रोग का जानपदिक
ज्ञान
(एपिडेमियोलॉजी) अभी तक पूर्ण
रूप से ज्ञात नहीं
है.
लम्पि-स्किन रोग एक संक्रामक
सीमा-पारीय
(ट्रांस-बॉउंड्री)
एवं सूचनीय
(नोटिफायबल) रोग है जो साधारण
संपर्क,
रोगी
के शरीर
से निकले
स्रावों
से संपर्क
एवं मक्खी
मच्छरों
के द्वारा
तेजी
से फैलता
है. इस रोग को फैलाने
में डेंगू
और चिकिन-गुनिया फैलाने
वाले
ऐडीज
मच्छरों
की विशेष
भूमिका
मानी
गई है परन्तु
मलेरिया
वाले
एनाफिलीज
मच्छर,
जापानीज
एन्सेफलाइटिस
वाले
क्यूलेक्स
मच्छर,
घोड़ों
को काटने
वाली
डाँस,
और चिंचिड़ियाँ
भी इस रोग के वाहक हो सकते हैं.
जिस क्षेत्र
में यह रोग फैलता
है वहां
लगभग
सभी पशुओं
में इसका
संक्रमण
लगने की संभावना होती है क्योंकि इसे फैलाने
वाले
कीट शायद
ही किसी
पशु को ना काटते
हों.
रोग में आजकल
काफी
बढ़ी हुई आक्रामकता
देखी
गई है, अफ्रीका
में लगभग
२०% पशुओं
में रोग के लक्षण
देखने
में आते
हैं और १-२% पशु मर जाते
हैं,
परन्तु
भारत
सहित
विभिन्न
देशों
में जहाँ
यह रोग नवागंतुक
है, अतः कुछ गांवों और गौशालाओं में १००% पशुओं को अपना
शिकार
बनाते
देखा
गया है जिनमें
से ५० प्रतिशत
तक मर जाते
हैं.
रोग के लक्षण
संक्रमण
लगने
के ४- २८ दिन बाद से लम्पि-स्किन रोग के लक्षण
आने लगते
हैं.
शुरुआत
बुखार
से होती
है जो १०३- १०६
डिग्री
फारेनहाइट
से भी
ज्यादा
तक हो जाता
है, मुंह
और नाक से पानी
आता है, पशु अपने
शरीर
को बार-बार
खींचता है
या अंगड़ाई
सी लेता
है और लगता
है उसे ठण्ड
लग रही है, और फिर त्वचा
में गांठे
उभरने
लगती
हैं.
इस रोग के मुख्य
लक्षणों
में शरीर
पर होने
वाली
गांठों
के अलावा
बुखार,
दूध उत्पादन
में गिरावट,
अयन और थानों
में सूजन
(मैस्टाइटिस),
लसिका
ग्रंथियों
में सूजन,
भूख का मरना,
नाक और आँखों
से पानी
बहना,
और कभी कभी मुँह
से खून मिश्रित
लार का बहना
इत्यादि
हैं.
इस रोग के बाद गायों
में स्थाई
या अस्थाई
बंध्यापन
भी देखने
में आता है. नर पशुओं
के अंडकोषों
में सूजन
आ जाति
है और उनपर
गांठें
भी बन जाति
हैं जिससे
वे अक्सर
गर्भाधान
करने
में अक्षम
हो जाते
हैं और नपुंशकता
भी आ जाति
है. पशुओं
के शरीर
में इस रोग की गांठे
सिर्फ
त्वचा
पर ही नहीं
वरन आँतों,
फेफड़ों
और दूसरे
अंदरूनी
अंगो
पर भी होता
है जो रोगी पशुओं के मृत्यु का कारण हो सकता है.
भैंसों में लम्पि रोग के शुरुआती लक्षण तो समान हैं परन्तु बिमारी के पूर्णतया प्रकट होने पर लक्षण गायों से थोड़ा भिन्न हैं, भैंसो में अगली दोनों टांगों के मध्य छाती पर सूजन आ जाती है जो अगले दोनों पैरों या एक पैर पर ऊपर से नीचे तक होती है, और ज्वर लगातार बना रहता है, ऐसे संकेत मिलते हैं जैसे कि यह रोग पशु के हृदय, यकृत या फिर गुर्दे को प्रभावित कर रहा हो।
शरीर
पर होने
वाली
गांठों
में सैंकड़ो
प्रकार
के जीवाणु
संक्रमण
कर सकते
हैं जिससे
गांठे
सड़न युक्त घावों
में परिवर्तित
होकर
इस रोग को मृत्यु
कारक
बना देते
हैं.
रोग का उपचार
लम्पि-स्किन रोग विषाणु-जनित होने
के कारण
इसका सम्पूर्ण
उपचार संभव
नहीं है.
परन्तु गांठों
में होने
वाले जीवाणुजनित
संक्रमण इस
रोग को
कहीं घातक
न बना
दें उसके
लिए निम्नलिखित
उपचार सुझाये
गए हैं.
१.
पशुओं की
रोग प्रतिरोधक
शक्ति बढ़ाने
के लिए
पौष्टिक दाना-चारा दें.
२.
पशुओं की
रोग प्रतिरोधक
शक्ति बढ़ाने
के लिए
समय-समय
पर पेट
के कीड़ो
की दवा
का उपयोग करें.
३.
पशुओं की
रोग प्रतिरोधक
शक्ति बढ़ाने
के लिए
लीवामेसोल नामक
दवा २.५ मिली
ग्राम/ किलो
वजन के
हिसाब से
एक बार
त्वचा के
नीचे इंजेक्शन
द्वारा दें.
४.
मिथिलीन ब्लू
नामक केमिकल
का एक
ग्राम एक
लीटर पानी
में घोलकर
तीन हिस्सों
में विभाजित
करके दिन
में तीन
बार पिलायें, छोटे
पशुओं यथा
बछड़े-बछड़ियों
को एक
तिहाई मात्रा
में रोज
दें.
५.
बुखार की
स्थिति में
दिन में
एक या
दो बार
मेलोक्सीकैम ०.५ मिली
ग्राम प्रति
किलो शरीर
भार के
हिसाब से
अन्तः पेशीय इंजेक्शन द्वारा दें.
६.
भूख बढ़ाने
लिए लिवोजन
इंजेक्शन १०
मिलीलीटर दिन
में एक
बार अन्तः पेशीय इंजेक्शन
द्वारा दें.
७.
पशु में
सुस्ती को
दूर करने
के लिए
टोनोफ़ॉस्फ़ान १०
मिलीलीटर दिन
में एक
बार अन्तः पेशीय
इंजेक्शन द्वारा
दें.
८.
त्वचा में
गांठों में
इन्फेक्शन से
बचाव हेतु
लॉन्ग-एक्टिंग
टेट्रासाइक्लिन इंजेक्शन
१०-२०
मिली ग्राम
प्रति किलो
शरीर भार
के हिसाब
एक दिन
के अन्तर
पर सप्ताह
में तीन
बार गहरे
अन्तः पेशीय
इंजेक्शन द्वारा
दें.
इसके अलावा ऑटो-हीमोथेरपी अर्थात पशु की नस से १० ml खून लेकर उसे मांस में गहरे इंजेक्शन लगाना, ऐसा सिर्फ एक बार करना होता है. इससे ७-१० दिनों में रोग से मुक्ति की बात की गई है परन्तु रोज एक बार ज्वर उतारने के लिए मेलोक्सीकॉम इंजेक्शन अवश्य लगाने की आवश्य्कता होती है
इसके
अतिरिक्त बहुत
सी देशी,
आयुर्वेदिक एवं
होमिओपेथिक दवाओं
को पशुचिकित्सक
की सलाह
के अनुसार
दे सकते
हैं.
रोग की रोकथाम: यह एक सूचनीय रोग है अतः रोगी पशु के दिखते ही अपने क्षेत्र के पशुचिकित्सक को तुरंत सूचित करें.
१.
रोगी पशु
को दूसरे
पशुओं से
अलग मक्खी-मच्छर मुक्त
स्थान पर
रखें
२.
स्वस्थ पशुओं
का मक्खी-मच्छरों से
बचाव करें,
साफ़ सफाई
का पूरा
ध्यान रखें.
३.
पशुओं के
पास मक्खी-मच्छर भगाने
के लिए
नीम या
गुग्गल और
लोबान का
धुआं करें.
४.
जिन इलाकों
में बिमारी
का प्रकोप
नहीं हुआ
और पिछले
२०-२५
दिनों से
कोई रोगी
पशु देखने
में नहीं
आया सिर्फ
वहीँ वैक्सीन
का प्रयोग
करें अन्यथा
परिणाम और
घातक हो
सकते हैं.
५.
अपने जानवरों
को सार्वजनिक
स्थानों, चरागाहों,
मेलों, तालाबों
आदि में
ना ले
जाएँ और
नाही ऐसी
जगह जाने
वाले जानवरों
के संपर्क
में आने
दें.
इस रोग
से उपचार
के बाद
स्वस्थ हुए
पशु इस
रोग के
प्रति रोग-प्रतिरोधकता विकसित
कर लेते
हैं उन्हें
फिर जीवन
में या
तो यह
रोग होता
नहीं और
अगर होता
भी है
तो अक्सर
लक्षण-विहीन
होता है.
इस लेख का अगला हिस्सा पूर्णतया डॉ. संदीप पहल, पूर्व सदस्य उत्तर प्रदेश गौ सेवा आयोग, लखनऊ, अधिवक्ता देशी गौ अनुसन्धान संस्थान, मेरठ, उ०प्र० ने सूचना के अधिकार के प्रयोग से प्राप्त सूचनाओं के
आधार पर लिखा है
सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत डॉ. संदीप पहल और डॉ. संदीप गुप्ता द्वारा प्राप्त सूचनाओं ने इस रोग के नियंत्रकों और वैज्ञानिकों, और अनुसन्धान निदेशकों की मंसा पर बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं यथा: लम्पि-स्किन रोग
एक आवश्यक
तौर से
सूचनीय रोग
है और इसे
हमारे देश
में आने
से पहले
एक विदेशी
रोग माना
जाता रहा
है, इस
तरह के
रोगों के
निदान और
अनुसंधान के
लिए भोपाल
में राष्ट्रीय
उच्च सुरक्षा
पशुरोग संस्थान
है परन्तु
आश्चर्य की
बात है
कि इस
रोग के
विषाणु को
सबसे पहले
राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान,
हिसार के
वैज्ञानिकों ने
विलगित किया
और उसकी
वैक्सीन बनाने
का भी
दावा करते
हुए भारतीय
कृषि अनुसन्धान
परिषद्, नयी
दिल्ली के
तत्वाधान में
इसकी तकनीकी
को वैक्सीन
उत्पादक कंपनियों
को काफी
महंगे में
बेच भी
दिया गया, परन्तु
यह सब
अपने आप में
कई सवाल
खड़े करता
है, जैसे:-
1. क्या उच्च
सुरक्षा पशुरोग
संस्थान, भोपाल
अपना काम
ठीक से
नहीं करता
या कर
रहा है?
2. राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान, हिसार
क्योंकर गायों
के रोग
पर काम
कर रहा
था, या
कर रहा
है, क्या
अश्व रोगों
का सम्पूर्ण
खात्मा हो
चुका है,
यदि हाँ
तो इस
संस्थान को
बंद क्यों
नहीं कर
दिया जाता?
3. भारतीय पशुचिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान
या राष्ट्रीय
उच्च सुरक्षा
पशुरोग संस्थान
क्यों लम्पिस्किन
रोग के
विषाणु को
विलगित करने
में सफल
नहीं हुए
या पिछड़
गए?
4. कैसे और
किस प्रकार
राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान
के वैज्ञानिक
दिसंबर २०१९
में रांची,
झारखण्ड में
जाकर गौ-पशुओं के
नमूने लेकर
इस रोग
का निदान
और उसके
विषाणु विलगित
करने लगे
जबकि उनका काम
ना तो
फील्ड से
किसी गैर-अश्वीय रोग
के विषाणु
विलगित करने का
है, न
ही अश्वो
से अलग पशुओं
की बीमारियों
की जांच-पड़ताल और
निदान करने
का है,
जो काम
उच्च सुरक्षा
पशुरोग संस्थान,
भोपाल तथा
भारतीय पशु
चिकित्सा अनुसंधान
संस्थान, इज्जतनगर,
बरेली का
है उसे
राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान
के वैज्ञानिक
क्यों और
कैसे कर सकते
हैं, और
कर रहे
हैं?
5. क्यों और
कैसे राष्ट्रीय
अश्व अनुसन्धान
संस्थान के
वैज्ञानिकों की
एलएसडी विषाणुओं,
जो गायों
और भैंसो
को प्रभावित
करते हैं,
और किसी
भी प्रकार
से अश्वो
में रोग
उत्पन्न नहीं
करते, के
विरुद्ध वैक्सीन
विकसित करने
के लिए
जनवरी २०२१
में अनुसन्धान
परियोजना नियम
विरुद्ध स्वीकृत
हो जाति
है. जो
काम राष्ट्रीय
उच्च सुरक्षा
पशुरोग संस्थान,
भोपाल तथा
भारतीय पशु
चिकित्सा अनुसन्धान
संस्थान, बरेली का
होना चाहिए
था उन्होंने
क्यों नहीं
किया, और
क्या कर रहे
हैं?
6. राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान,
हिसार से
प्राप्त सूचना
के अनुसार
लम्पि-स्किन
रोग की
वैक्सीन बनाने
वाली टीम
में चार
वैज्ञानिक सम्मिलित
हैं, दो
राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान
के (डॉ.
नवीन कुमार
एवं डॉ.
संजय बरुआ,
इन्होने रोग
के विषाणुओं
को विलगित
किया तथा
उन्हें वैक्सीन
बनाने लायक
बनाया तथा
वैक्सीन को
टेस्ट किया)
और दो
भारतीय पशु
चिकित्सा अनुसन्धान
संस्थान, इज़्ज़तनगर, बरेली
के (डॉ.
स. नंदी
एवं डॉ.
अमित कुमार,
इन्होने वैक्सीन
को टेस्ट
किया). वैक्सीन
को टेस्ट
करने के
लिए नियंत्रण और जानवरों पर प्रयोग के पर्यवेक्षण के उद्देश्य के लिए समिति
(CPCSEA) से इस वैक्सीन
का प्रायोगिक
परीक्षण करने
के लिए
डॉ. नंदी
ने ४८
गौ-पशुओं
में इसे
परीक्षण करने
की अनुमति
ली [CPCSEA approval v-1101(B)/3/2022 CPCSEA.
DADF dated 10-03-2022)] परन्तु यहाँ कई
प्रश्न यकायक
कौंध जाते
हैं:-
i. वैक्सीन का
प्रायोगिक परीक्षण
करने के
लिए राष्ट्रीय
अश्व अनुसन्धान
संस्थान, हिसार
के वैज्ञानिकों
ने अनुमति
क्यों नही
ली?
ii. जब अनुमति
विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन
(OIE) के नियमों का
हवाल देते
हुए ४८
पशुओं में
वैक्सीन के
प्रायोगिक परीक्षण
करने के
लिए ली
गई तब
सिर्फ इसे
८ पशुओं
में ही
परीक्षण के लिए
क्यों लगाया
गया और
तीन पशुओं
को ही
नियंत्रित समूह
(कंट्रोल ग्रुप) के
तौर पर
रखा गया,
यहाँ तक
की वैक्सीन
की सुरक्षिता
(सेफ्टी) जांचने
के लिए
भी केवल
दो पशुओं
का ही
उपयोग क्यों
किया गया
(डॉ. नवीन
से द्वितीय
लेखक को
ईमेल के
द्वारा प्राप्त
सूचना के
अनुसार)?
iii. वैक्सीन की
उचित और
आवश्यक खुराक
पता लगाने
के लिए
कोई परीक्षण
क्यों नही
किया गया?
iv. क्योंकर भारतीय
पशुचिकित्सा अनुसन्धान
संस्थान, इज़्ज़तनगर
ने सूचना
के अधिकार
के तहत
सूचित किया
कि उसका
कोई भी
वैज्ञानिक प्रायोगिक
परीक्षण करने
में शामिल
नहीं था,
ना ही
परीक्षण स्थान
(मुक्तेश्वर) पर
गया था?
v. डॉ. नंदी
ने स्वयं
ऐसा क्यों
कहा (द्वितीय लेखक
से संवाद
के दौरान
४ अक्टूबर
२०२२ की
शाम को)
कि उन्होंने
४८ पशुओं
में प्रायोगिक
परीक्षण करने
के लिए
कोई अनुमति
ली ही
नहीं, फिर
उनके नाम
से अनुमति
किसने ली?
vi. वैक्सीन के
फील्ड परीक्षण
के लिए
नियंत्रण और जानवरों पर प्रयोग के पर्यवेक्षण के उद्देश्य के लिए समिति
से कोई
अनुमति क्यों
नही ली
गई?
vii. वैक्सीन के
प्रायोगिक परीक्षण
एवं फील्ड
परीक्षण करने
के दौरान
विषाणु का सीरम
नूट्रलाइज़ेसन परीक्षण,
जो किसी
भी विषाणुजनित
रोग की
वैक्सीन के
परीक्षण के
लिए सर्वमान्य
है, क्यों
नहीं किया
गया?
viii. प्राप्त सूचना
के अनुसार
फील्ड परीक्षण
राजस्थान के
बांसवाड़ा, उदयपुर
और जोधपुर
जिलों में
जून से
अगस्त २०२२
में किया
गया, और
सोचने वाली
बात है
की राजस्थान
में लम्पि-स्किन रोग
के प्रथम
रोगी उदयपुर
में ही
अगस्त २०२२
में ही
मिले थे,
और उदयपुर
और जोधपुर
ही सर्वाधिक
लम्पि-स्किन
रोग ग्रस्त
जिलों के
रूप में
चिह्नित किये
गए हैं.
इसके अलावा
बीकानेर भी
जोधपुर के
साथ लम्पि-स्किन रोग
का केंद्र
बना हुआ
है. ज्ञात
हो कि
बीकानेर में
भी राष्ट्रीय
अश्व अनुसन्धान
संस्थान का
एक केंद्र
है. कहीं
नाजायज़ लम्पि-स्किन रोग
वैक्सीन और
राष्ट्रीय अश्व
अनुसन्धान संस्थान
ही तो
लम्पि-स्किन
रोग के
राजस्थान में
सर्वाधिक प्रसार
का कारण
नहीं हैं?
अब सवाल उठता है और डर भी है कि क्या घपले से पैदा हुई लम्पि-स्किन रोग की वैक्सीन कोई काम भी करेगी या नहीं, कहीं ऐसा हाल तो नहीं हो जाएगा जैसे की मुंह-पका खुर-पका रोग नियंत्रण कार्यक्रम और राष्ट्रीय पशुरोग नियंत्रण कार्यक्रम को मुंह-पका खुर-पका रोग की वैक्सीनों ने ही परलोकवासी बना दिया, खरबों रुपये खर्च करके भी वही ढांक के तीन पात साबित हुए.
यदि लम्पि-स्किन रोग
की वैक्सीन
उचित तरीकों
से नहीं
बनाई गई
और ना
ही उचित
प्रायोगिक एवं
फील्ड परीक्षणों
से ही
गुजरी तो
वैक्सीन निर्माताओं
ने इसकी
तकनीकी को
महंगे भाव
में क्यों
खरीद लिया?
इसका एकमात्र
कारण है
इस वैक्सीन
तकनीकी में
भारतीय पशुचिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान
का बगैर
कुछ किये-धरे भी
भागीदार होना.
एक कहावत
है कि,
जब सैंया
भये कोतवाल
तो डर
काहे का,
भारतीय पशुचिकित्सा
अनुसन्धान संस्थान
भारत में
पशुओं में
प्रयुक्त होने
वाली और
बिकने वाली
सभी वैक्सीनों
का एक
मात्र कोतवाल
है जो
बताता है
कि कोई
वैक्सीन गुणवान
है या
नहीं, अब
आप ही
बताइये कि
कोतवाल साहब
अपने बच्चे
(लम्पि-स्किन
रोग की
वैक्सीन) को
अगुणी या
अवगुणी कैसे
और क्यों
बताएँगे. इस
तथ्य को
सभी वैक्सीन
निर्माता जानते
हैं और
उन्हें पूरा
भरोसा है
कि यदि
वे पानी
भी वैक्सीन
के नाम
पर बेचेंगे
तो उस
पानी को
भी, कोतवाल
साहब का
बच्चा होने
के कारण,
गुणवान वैक्सीन
बनना ही
पड़ेगा, उसे
निश्चय ही
उच्च गुणवत्ता
का प्रमाणपत्र
मिल जाएगा,
किस प्रकार
नहीं मिलेगा?
अब
आते हैं गोट-पॉक्स
वैक्सीन के
लम्पि-स्किन
रोग के प्रसार को रोकने हेतु
संस्तुति करने
के अहम् मुद्दे पर (कई जगहों
पर इस वैक्सीन के लगने के बाद
लम्पि रोग भयावह
रूप से फैला
है)
1. केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) से प्राप्त सूचना के अनुसार, भारत में गोट-पॉक्स वैक्सीन केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (भारत की एकमात्र संस्था जो सभी औषधियों एवं वैक्सीनों को भारत में प्रयोग और बिक्री के लिए अनुमति प्रदान करती है) से बिना किसी अनुमति और अनुमोदन के करोड़ों गायों को लम्पि-स्किन रोग से बचाने के नाम पर लगा दी गई, बिना यह जाने कि वैक्सीन कामयाब भी है कि नहीं. और नाही कभी ऐसे किसी अनुमति और अनुमोदन के लिए किसी ने प्रार्थना पत्र ही दिया.
2. भारतीय
पशु चिकित्सा
अनुसन्धान
संस्थान, बरेली
से प्राप्त सूचना के अनुसार उसके किसी वैज्ञानिक ने गोट-पॉक्स वैक्सीन के लम्पि-स्किन
रोग
से बचाव हेतु गौ-पशुओं में उसके प्रयोग की संस्तुति नहीं की. परन्तु यह एक जान बूझकर बोला गया झूठ है, वास्तविकता है कि तत्कालीन निदेशक डॉ. राज कुमार सिंह, जो कि गोटपॉक्स वैक्सीन के मुख्य अनुसंधान कर्ता तथा रॉयल्टी पाने वाले भी हैं, उन्होंने एक समिति बनाकर गोट-पॉक्स वैक्सीन के गौपशुओं में लम्पि-स्किन रोग से बचाव हेतु गोटपॉक्स वैक्सीन के प्रयोग की संस्तुति की है.
ऐसा नहीं
है की गोट-पॉक्स वैक्सीन
लम्पि-स्किन रोग से बचाव
नहीं
कर सकती
परन्तु
ईरान
में हुए एक अनुसंधान
में पाया
गया है कि सभी गोट-पॉक्स वैक्सीन
एक जैसी
प्रतिरक्षा
नहीं
देतीं,
कोई-कोई काम नहीं
करती, तो कोई ठीक-ठाक प्रतिरक्षा
देती
है और अनुसन्धान
के सार स्वरूप
बताया
गया की गौ पशुओं
में बिना
प्रायोगिक
परीक्षण
के गोट-पॉक्स वैक्सीन
का प्रयोग
नहीं
किया
जाना
ही उचित
है. एक अन्य
अनुसंधान
में जो मोरक्को
में हुआ, उसमे प्रयोगों
के आधार
पर कहा गया है कि लम्पि-स्किन रोग से बचाव
के लिए लम्पि-स्किन रोग के विषाणु
से तैयार
वैक्सीन
ही उपयोगी
है. परन्तु
भारत
के भ्रष्ट
वैज्ञानिकों
ने बिना
किसी
उचित
परीक्षण
के गोट-पॉक्स वैक्सीन
के गायों
में प्रयोग
की अनुमति
दी और परिणाम
सामने
हैं,
पूरा
देश लम्पि-स्किन रोग के प्रकोप
से त्राहिमाम
कर रहा है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि लम्पि-स्किन रोग के विषाणु को राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान संस्थान के ही वैज्ञानिकों ने इसे गलत तरीकों से आयात करके देश में फैला दिया और नाम कमाने के लिए आनन्-फानन में वैक्सीन भी बना दिया? या फिर किन्ही देश के दुश्मनो ने गाय-जाति के पशुओं को हानि पंहुचाने के उद्देश्य से रोग को फैला दिया? या फिर गोट-पॉक्स वैक्सीन बनाने (भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान) और बेचने वालों (Hester Bioscience Pvt. Ltd) ने ही तो कहीं लम्पि-स्किन रोग को भारत में चुपके से फैला दिया? ऐसा भी नहीं है की इन संस्थानों पर पशुओं में रोग फैलाने के आरोप पहली बार लग रहे हैं, पहले भी इन पर कई बार उंगली उठी है. परन्तु कभी भी देशद्रोहियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही न होने से उनके हौंसले हमेशा की तरह आज भी बुलंद हैं.
Livestock owners & Farmers: e careful of Veterinarians and their staff
सन्दर्भ
1.
https://www.nature.com/articles/s41598-020-65856-7.pdf
3.
https://www.woah.org/fileadmin/Home/eng/Health_standards/tahm/2.07.13_S_POX_G_POX.pdf.
6.
RTI Reply CDSCO/R/E/22/000283
7.
RTI Reply NRCEQ/R/T/22/0002
8.
RTI Reply IVTRI/R/E/22/00067
9.
RTI Reply IVTRI/R/E/22/00073
10.
RTI Reply IVTRI/R/E/22/00076
12.
https://draft.blogger.com/u/1/blog/post/edit/6638451428693957679/1138735983092369554
14.
https://azad-azadindia.blogspot.com/2018/09/indian-disease-disseminating-research.html
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