Tuesday, May 21, 2024

भारत में पशु वैक्सीन मूल्य श्रृंखला की कड़ियों में कमजोरियां और सुधारों की आवश्यकता

         भारत में पशु वैक्सीन मूल्य श्रृंखला की कड़ियों में कमजोरियां और सुधारों की आवश्यकता

                                   भारत में पशु-रोग नियंत्रण की समस्याएं और समाधान


वैक्सीन के सफल उत्पादन, विपणन और अंततः बाजार में स्थायी स्वीकार्यता के लिए एक त्रुटिहीन मूल्य श्रृंखला का होना आवश्यक है। हाल के दिनों में भारत सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद पशु रोग निरोधक टीकों की स्वीकार्यता में भारी गिरावट आई है। इस लेख में पशु रोग निरोधक टीका मूल्य श्रृंखला की खामियों और सुधारात्मक नीतियों पर विचार किया गया है

वैक्सीन उत्पादन मूल्य श्रृंखला की प्रमुख खामियाँ निम्न प्रकार की  हो सकती हैं

1. जीएमपी, जीएलपी, एबीएसएल-II और एबीएसएल-III सुविधाओं की सीमाएं: पशु रोग निरोधक टीकों के उत्पादन के लिए प्राथमिक आवश्यकता जीएमपी, जीएलपी, एबीएसएल-II और एबीएसएल-III सुविधाओं युक्त संरचना की होती है। ऐसी सुविधाओं युक्त संरचना का निर्माण एक महंगा प्रयोजन है। इन्ही कमियों के कारण पिछले 15 वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्रों में अधिकांश वैक्सीन उत्पादन संस्थानों को बंद करने के आदेश दिए गए हैं, यहां तक ​​कि भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान को भी अपनी अरबों रुपये कमाने वाली वैक्सीन उत्पादन इकाई को बंद करना पड़ा था। सरकारी संस्थानों में ज्यादातर वैक्सीन उत्पादन केंद्र लगभग एक दशक से बंद पड़े हैं। यहां तक ​​कि निजी क्षेत्र में टीके का उत्पादन करने वालों के पास भी लक्षित जानवरों और पक्षियों में टीकों की आंतरिक गुणवत्ता नियंत्रण के लिए उपयुक्त विधिवत अनुमोदित एबीएसएल-II और एबीएसएल-III सुविधाओं का अभाव है और वे इस कार्य को अक्सर कुछ सरकारी संस्थानों को आउटसोर्स करते हैं। सबसे बड़े रोग निरोधक टीका निर्माता, आईआईएल, हैदराबाद सहित अधिकांश वैक्सीन उत्पादकों द्वारा एनएडीसीपी के तहत उपयोग किए जाने वाले टीकों के लिए आईवीआरआई, बेंगलुरु और एनआईएएच बागपत में एबीएसएल-III सुविधा उपयोग किया जाता हैंऔर यह सुविधा  प्रदाता भी अपने गैर प्रमाणित प्रयोगशालाओं में वह कार्य करते रहते हैं क्योंकि सरकारी संस्थान होने के कारण उन पर उंगली उठाने वाले अक्सर भुलावे में आ जाते हैं

2. विश्वसनीय और उपयोगी वैक्सीन उपभेद: हम सभी वैक्सीन उपभेदों के उपयोग के महत्व को भली भांति समझते हैं, ये रोगाणुओं के वे प्रभेद हैं जो लक्षित क्षेत्र में टीकाकरण की जाने वाली लक्षित पशु आबादी में बहुतायत से प्रसारित और उपस्थित रोगाणुओं के साथ सबसे अच्छी तरह मेल खाते हैं, लेकिन भारत में उपयोग किए जाने वाले कई टीके इसके अनुरूप नहीं हैं। वैक्सीन उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि वैक्सीन उत्पादन के लिए वैक्सीन स्ट्रेन सबसे अधिक इम्युनोजेनिक और सुरक्षित होना चाहिए। किसी स्ट्रेन को वैक्सीन स्ट्रेन के रूप में परिभाषित करने के लिए, प्रायोगिक मॉडल में अंतिम तैयारी में उपयोग किए जाने वाले सहायक (adjuvant) के साथ संगतता के साथ-साथ इसकी अहानिकरता, सुरक्षा, शक्ति और दी गई सुरक्षा की दीर्घायु के लिए इसका कठोरता से परीक्षण करने की आवश्यकता होती है। इसके बाद, वैक्सीन स्ट्रेन को लक्षित जानवरों और लक्षित क्षेत्र में परीक्षण के पहले, दूसरे और तीसरे चरण में (परीक्षण के पहले, दूसरे और तीसरे चरण में क्रमशः 30, 300 और 3000 पशुओं में परीक्षण के बाद) लगातार सुरक्षित और प्रभावी साबित होना चाहिए। एफएमडी और एलएसडी, सीएसएफ टीकों की विफलता गलत स्ट्रेन चयन का ज्वलंत उदाहरण हो सकती है।

3. वैक्सीन के सफल व्यावसायिक उत्पादन के लिए उपयुक्त और टिकाऊ वैक्सीन उत्पादन तकनीक आवश्यक है कई बार, वैक्सीन उत्पादन और फॉर्मूलेशन प्रौद्योगिकियों के कारण सर्वोत्तम वैक्सीन स्ट्रेन के उपयोग के बावजूद खराब गुणवत्ता वाले टीकों का उत्पादन होता है। अधिकांश तेल-सहायक टीकों (oil emulsion vaccines) की अस्थिरता भारत में एक बड़ी समस्या है, टीकों को भंडारण के बाद अक्सर देखा गया है कि वैक्सीन कि शीशी में वैक्सीन दो या दो से ज्यादा सतहों में दिखाई पड़ती है जो इंगित करती है कि वैक्सीन का इमल्सन स्थाई नहीं है और वैक्सीन की गुणवत्ता संदेहास्पद है, जिससे इमल्सन समायोजन की विफलता के कारण टीके विफल हो जाते हैं। भारत में सभी एफएमडी टीकों और कई एचएस टीकों में यह खामी है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि यह टीके में थर्मोटॉलरेंस की कमी के कारण है, और थर्मोटॉलरेंस का मुकाबला करने के लिए कई वैक्सीन विकास संस्थानों ने राष्ट्रीय अनुसंधान निधि का बहुत सारा हिस्सा बर्बाद कर दिया है। इस तथ्य को समझे बिना कि थर्मोटोलरेंट स्ट्रेन का विकास इस समस्या का समाधान नहीं है बल्कि थर्मोस्टेबल इमल्सन वैक्सीन  का विकास अति आवश्यक हैपरन्तु थर्मोटोलरेंट  विभेद का विकास करने से और उसके अध्ययन से वैज्ञानिको के अच्छे अनुसन्धान लेख प्रकाशित होते हैं जो थर्मोस्टेबल इमल्सन वैक्सीन के विकास से शायद नहीं होंगे, अतः स्वार्थ देश-हित से ऊपर हो चला है। स्थिर इमल्शन टीकों के उत्पादन के लिए उपयुक्त वैक्सीन फॉर्मूलेशन और तकनीकों के माध्यम से समस्या को आसानी से हल किया जा सकता है। 

4. वैक्सीन उत्पादन के लिए मान्यता प्राप्त जीएमपी सुविधा और उसका प्रमाणन यद्यपि सभी वैक्सीन उत्पादन इकाइयां सक्षम प्राधिकारियों (उदाहरण के लिए, डीसीजीआई) से उचित जीएमपी अनुमोदन का दावा करती हैं, ऐसे अनुमोदनों की सिफारिश उन अधिकारियों द्वारा की जाती है जो अपने काम के स्थान पर या संस्थान में किसी भी जीएमपी सुविधा (इकाई को विकसित करने में विफल रहे हैं, या वैक्सीन उत्पादन के लिए पहले से उनके पास कोई अनुभव नहीं है, और न ही कभी उन्होंने जीएमपी प्रमाणित प्रयोगशालाओं में काम करने का अनुभव लिया है, जिसका असर होता है प्रमाणकों द्वारा जीएमपी सुविधा की अक्षुण्णता का परीक्षण करने की प्रक्रियाओं को समझने में असफल होना। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लाइसेंस धारक अनुमोदकों  को ही इस अनुप्रमाणन प्रक्रिया में शामिल किया जाना इसका संधान हो सकता है। 

5. वैक्सीन उत्पादन विशेषज्ञ और वैक्सीन उत्पादन में क्यूए (QA) और क्यूसी (QC) के मूल्य के बारे में उनकी समझ। अधिकांश वैक्सीन उत्पादन इकाइयाँ गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के बजाय मात्रा पर जोर देती हैं और उत्पादन में लगे कर्मचारी या तो अपने शुरुआती कैरियर में भर्ती किए गए लोग होते हैं या इस तरह के काम के लिए बिना किसी कानूनी लाइसेंस के सेवानिवृत्त लोग होते हैं, इस प्रकार उन्हें हमेशा छंटनी का डर रहता है, और समझौता करना उनकी नियति होती है। गुणवत्ता के साथ वे सब कुछ जानते हुए कि उत्पाद घटिया गुणवत्ता का है स्वार्थवश वे समझौता करते हैं। कई बार उत्पादन कर्मचारी उत्पादन में दोष और उत्पाद की खराब गुणवत्ता को जानते हैं लेकिन वे सोचते हैं कि उत्पाद को त्यागना या स्वीकार करना उनका कर्तव्य नहीं है और इसे क्यूए/क्यूसी कर्मचारियों पर छोड़ना आसान समझते हैं। यदि QA/QC कर्मचारी पदानुक्रम में उत्पादन इकाई प्रमुख से नीचे हैं या उन्हें उत्पादन कर्मचारियों की ईमानदारी पर भरोसा है तो वे परीक्षण के बिना भी उत्पाद स्वीकार कर लेते हैं। बड़ी फार्मास्यूटिकल्स में यह एक अधिक सामान्य प्रथा है क्योंकि प्रशासन जानता है कि कंपनी की प्रतिष्ठा नियामक अधिकारियों को उनके उत्पादों का नमूना लेने की अनुमति नहीं देगी। कुछ साल पहले एक आरटीआई से पता चला था कि सीडीएससीओ इंडियन इम्यूनोलॉजिकल लिमिटेड जैसे बड़े फार्मास्यूटिकल्स के उत्पादों का परीक्षण करने के लिए शायद ही कभी कोई नमूना लेता है। इसका नतीजा यह होता है कि घटिया टीकों का निरंतर प्रसार होता है और बड़े पैमाने पर टीके की विफलता के बाद भी बड़े फार्मास्यूटिकल्स के उत्पाद का शायद ही कोई नियामक नमूने लेने की हिम्मत करता है।

6. टीकों और अन्य फार्मा उत्पादों के उत्पादन और बिक्री के लिए सक्षम प्राधिकारी (डीसीजीआई) से मंजूरी: यह कोई काल्पनिक डर नहीं है, पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ है कि कई टीके DCGI के किसी अनुमोदन बिना सार्वजनिक उपयोग के लिए बाजार में आ गए हैं। जैसे हाल के दिनों में एलएसडी के नियंत्रण के लिए बिना किसी अनुमोदन के बड़े पैमाने पर गोट पॉक्स वैक्सीन का उपयोग, बिना किसी अनुमोदन के लाखों जानवरों में लम्पी प्रोवैक का उपयोग, इसी तरह कई और भी वैक्सीनों, एंटीबायोटिक्स और अन्य दवाओं का भारतीय बाजार में बिना किसी भी प्रकार की स्वीकृति के धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है और उपभोक्ता दवा खाकर और वैक्सीन लगवाकर भी मर रहा है

7. नियामक स्तर पर गुणवत्ता नियंत्रण (क्यूसी): ऊपर बिंदु 4 पर गुणवत्ता नियंत्रण पर थोड़ी चर्चा की गई है, पशु टीका गुणवत्ता नियंत्रण की वास्तविकता वास्तव में अधिक विचित्र और विचलित करने वाली है। अगर हम सैंपलिंग, सैंपल टेस्टिंग और ईमानदार रिपोर्टिंग में चयनात्मकता को एक तरफ रख भी दें, तो भी बड़ी समस्या टेस्टिंग सुविधाओं की कमी है। एक भी पशु टीका परीक्षण सुविधा एनएबीएल (NABL) या अन्य मान्यता प्रदाता एजेंसियों (ISO) द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है और परीक्षण की वैधता को भारत में कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती है क्योंकि कहीं कोई प्रमाणित क्यूसी परीक्षण सुविधाएं नहीं हैं, यहां तक ​​कि दोबारा परीक्षण के लिए भी नमूने एक ही प्रयोगशाला में जाते हैं। और ऐसा करना दोबारा परीक्षण की वैधता को ख़तरे में डालता है परन्तु यही हमारी मजबूरी है कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था है ही नहीं। भारत में किसी भी QC परीक्षक के पास परीक्षण करने का कोई लाइसेंस नहीं है, केवल उनकी पोस्टिंग के स्थान के कारण उन्हें परीक्षक बनने के लिए अधिकृत किया गया है। क्यूसी परीक्षक अक्सर न तो राष्ट्र के लिए और न ही पशुधन मालिकों के लिए काम करते हैं बल्कि टीका उत्पादकों या उस संस्थान के लिए काम करते हैं जहां वे काम करते हैं। कारण, भारत में राष्ट्रीयता की अवधारणा बहुत अस्पष्ट है, भारत पहले इंदिरा था और इंदिरा भारत, अब भारत मोदी है मोदी ही भारत है, इसी तर्ज पर संस्थान निदेशक  (संचालक) भी अक्सर खुद को और अपने अधीनस्थों को यही समझाते हैं कि संस्थान का मतलब निदेशक और उसके आदेश हैं। यदि कोई कर्मचारी किसी सरकारी विभाग में बेईमानी के खिलाफ आवाज उठाता है, तो उस व्यक्ति को अक्सर संस्थान के लिए गद्दार माना जाता है और विभीषण कहा जाता है, लोग उस व्यक्ति को कहते हैं, "जिस थाली में खाता है उसी में छेद कर रहा है"। इस प्रकार, भारत में पशु चिकित्सा टीकों की क्यूसी पशु टीका क्षेत्र में एक अपारदर्शी क्षेत्र है। यहां तक ​​कि अगर कोई आपूर्तिकर्ता/निर्माता घटिया वैक्सीन की आपूर्ति जारी रखता है, तो भी प्रदाता को शायद ही कभी रोका जाता है या दंडित किया जाता है, या फिर बहुत ही मामूली वित्तीय दंड लगाया जाता है, जो घटिया वैक्सीन की आपूर्ति के माध्यम से अर्जित लाभ के बराबर भी नहीं होता है। इसके अलावा, सीडीएससीओ भारत में किसी कंपनी से घटिया उत्पाद मिलने के बाद भी डिफॉल्टर को दंडित नहीं कर सकता है, यह एक दंतहीन बाघ है। ज्यादातर मामलों में, जब तक किसी टीके को नियामक प्राधिकरण द्वारा घटिया पाया जाता है, तब तक घटिया टीके के बैच की पुनर्प्राप्ति का आदेश देने में बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि पूरे बैच का पहले ही पूरी तरह से उपयोग किया जा चुका होता है। गुणवत्ता परीक्षण में बहुत ही ज्यादा विकास करने कि आवश्यकता है। 

8. गुणवत्ता परीक्षण (क्यूसी) में हितों का टकराव: पशु चिकित्सा टीकों की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए अधिकृत एकमात्र संस्थान, भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान है, वह संस्थान जिसके पास लगभग 90% वैक्सीन उपभेदों और भारत में विभिन्न कंपनियों द्वारा उपयोग की जाने वाली अधिकांश वैक्सीन प्रौद्योगिकियों के अधिकार हैं। वैक्सीन विकसित करने के लिए संस्थान को प्रत्येक वैक्सीन खुराक के उत्पादित होने पर रॉयल्टी मिलती है और यह तथ्य हमेशा रॉयल्टी में नुकसान के डर से वैक्सीन के एक बैच को घटिया घोषित करने के रास्ते में आड़े आता है। इसके अलावा, संस्थान केंद्रीय रोग निदान संस्था, एकाधिकार रखने वाली सीडीडीएल के तौर पर कार्य करता है, जिसके पास किसी बीमारी के फैलने की घोषणा और पुष्टि करने और बीमारी की पहचान घोषित करने का एकाधिकार है। यदि उसके परिसर में भी पूर्ण टीकाकरण कवरेज के बाद वैक्सीन-रोकथाम योग्य बीमारी का प्रकोप होता है, तो वह शायद ही कभी वैक्सीन की विफलता की घोषणा करने या सही बीमारी की पहचान करने की हिम्मत करता है क्योंकि उसी संस्थान ने वैक्सीन उत्पादकों को तकनीक दी है, संस्थान ने गुणवत्ता प्रमाणित की है अतः किसी भी प्रकार से टीके कि साख को बचाना उसकी मजबूरी भी है और जरूरत भी (उच्च प्रशासन और फार्मास्यूटिकल्स की निगाहों में भला बना रहने के लिए)। अतीत में आईवीआरआई, एनडीआरआई, सीआईआरबी आदि में एफएमडी के कई प्रकोपों ​​को जानबूझकर केवल हितों के टकराव के कारण छिपाया गया था। 

9. टीकों की खरीद, परिवहन, भंडारण और आपूर्ति: इस मोर्चे पर कई समस्याएं हैं। पशुधन में उपयोग किए जाने वाले अधिकांश टीके केंद्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर उच्चतम अधिकारियों द्वारा निर्धारित दरों पर खरीदे जाते हैं। खरीदार के पास गुणवत्ता की जांच करने का शायद ही कोई अधिकार होता है या खरीदा गया उत्पाद खराब गुणवत्ता का होने पर दंडित करने की शक्ति होती है क्योंकि गुणवत्ता साबित करना किसी और पर निर्भर करता है। कभी-कभी खरीद के लिए धनराशि वित्तीय वर्ष के अंत में जारी की जाती है और टीके की गुणवत्ता को अधिक महत्व दिए बिना धन का उपयोग करने के लिए जल्दबाजी में खरीदारी की जाती है। खरीद के बाद, अकुशल कोल्ड चेन परिवहन वाहनों और कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं के अभाव के कारण वैक्सीनों का परिवहन और भंडारण वास्तव में एक बड़ी समस्या है। मैंने देखा है कि बड़े संस्थानों में भी कोल्ड स्टोरेज अक्सर अक्षम होते हैं और वहां रखे गए टीके बेकार हो जाते हैं। वैक्सीन की प्रत्येक शीशी पर तापमान के दुरुपयोग की निगरानी को अनिवार्य बनाने की तत्काल आवश्यकता है। मैंने व्यक्तिगत रूप से एफएमडी टीकों का भंडारण डीप फ्रीजर में या सूखी बर्फ (Dry Ice, solid CO2) के डिब्बे में या केवल ठंडे पानी से भरे डिब्बे में देखा है। भारत के अधिकांश हिस्सों में पशु चिकित्सालयों और औषधालयों में या तो टीके रखने के लिए फ्रिज नहीं हैं या बिजली नहीं हैं या नियमित बिजली आपूर्ति न होने और बैकअप सुविधा की अनुपलब्धता के कारण फ्रिज लगभग बंद हैं। अस्पताल के फ्रिज की समय पर मरम्मत कराने के लिए धन प्राप्त करना लगभग असंभव है और अधिकांश पशु चिकित्सकों के पास आपातकालीन उपयोग के लिए धन का कोई प्रावधान नहीं है, और आमतौर पर खर्चों की प्रतिपूर्ति मांगी जाने पर घूस की आवश्यकता होती है। अतः पशु चिकित्सालयों पर

a. अक्सर टीकों की आपूर्ति समय पर नहीं हो पाती।
b. टीके अक्सर उचित कोल्ड चेन भंडारण में नहीं होते हैं।
c. टीके अक्सर तब आते हैं जब बीमारी का प्रकोप पहले से ही मौजूद होता है।
d. टीकाकरण अक्सर पशुधन की समस्या के बजाय एक राजनीतिक एजेंडा बन जाता है।
10. अपर्याप्त, अकुशल और अप्रशिक्षित टीकाकरण कर्मचारी: एक पशुचिकित्सक जो पहले से ही अस्पताल के काम के अलावा कई अन्य कर्तव्यों से लदा हुआ है, उस समय तनावग्रस्त हो जाता है जब पूरे क्षेत्र में पशुधन में टीकाकरण को कुछ हफ्तों के भीतर पूरा करने के लिए जल्दबाजी में आदेश दिया जाता है, पशुधन मालिक अक्सर सोचते हैं कि टीकाकरण का मतलब रोकथाम के बजाय इलाज है, पशुचिकित्सकों को अस्पताल में बुनियादी ढांचे के बिना कोल्ड चेन रखरखाव की व्यवस्था करनी होती है, और अक्सर इतने सारे प्रशासनिक और राजनीतिक दबाओं के तहत पशुचिकित्सक विकल्प खोजने की कोशिश करते हैं। पशुचिकित्सक अक्सर बिना किसी सुरक्षात्मक उपायों से सज्जित (पीपीई), पर्याप्त सुई, सिरिंज और पशु निरोधक उपकरण/ सुविधाओं के, कई बार कम प्रशिक्षित और कम सुसज्जित लोगों को टीकाकरण का काम देते हैं। टीकाकरण प्रभावी होने के लिए न केवल टीकाकरण कर्मचारियों बल्कि पशुधन मालिकों की भी उचित शिक्षा और प्रशिक्षण टीकाकरण की सफलता के लिए एक आवश्यक घटक है। 
11. टीकाकरण की वास्तविकता और टीकाकरण की विफलता: भारत में पिछले कुछ दशकों में बार-बार टीकाकरण की विफलता ने पशु चिकित्सकों और शिक्षित पशुधन मालिकों में टीकाकरण की उपयोगिता के बारे में बहुत कम विश्वास बाकी छोड़ा है, जिससे टीकों और टीकाकरण के प्रति उदासीनता पैदा हो गई है। पशु चिकित्सकों द्वारा टीकों का उपयोग न करने और टीकों को यह सोचकर फेंक दिए जाने की सैकड़ों रिपोर्टें हैं कि पशुधन, श्रम और भी बहुत कुछ बचाने के लिए टीकों का उपयोग करना अच्छा नहीं है। मैंने प्रमुख पशु चिकित्सा संस्थान में भी लोगों को पीपीआर टीकाकरण का नाटक करते या अपनी बकरियों के टीकाकरण पर रोक लगाते हुए देखा है, उनके पूर्व अनुभव के आधार पर उन्हें डर है कि टीकाकरण से पीपीआर का प्रकोप बढ़ सकता है। 
12. टीका और टीकाकरण विफलता के मामले में जिम्मेदारी निर्धारण तंत्र का अभाव: टीकाकरण के बाद भी जब वाणिज्यिक और सरकारी पशुधन फार्मों सहित कहीं भी बीमारी का प्रकोप होता है और बीमारी की पुष्टि हो जाती है तो पशुधन फार्मों में होने वाले नुकसान के लिए कभी भी किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है। यदि इस्तेमाल किया गया टीका खराब गुणवत्ता का है, तो टीका प्रदाता को दंडित किया जाना चाहिए, यदि टीका अच्छा होता है तो पशुओं को टीका लगाने वालों को दंडित किया जाना चाहिए, यदि दोनों सही थे तो नुकसान के लिए फार्म प्रबंधन को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और वसूली की जानी चाहिए। जिम्मेदार लोगों पर दंडात्मक कार्यवाही होनी ही चाहिएपरन्तु सत्य यही है कि जैसे एक जैसे पक्षी हमेशा एक ही झुण्ड में रहते हैं उसी तरह एक भृष्ट दूसरे भृष्ट को अंत तक बचाने के प्रयास में रहता है। 
13. टीके और टीकाकरण की विफलता के मामले में पशुधन मालिकों को मुआवजा देने के लिए नियमों और उनके कार्यान्वयन की कमी: 2019 में जब पूरे देश में उपयोग किए जाने वाले एफएमडी वैक्सीन बैचों को ख़राब गुणवत्ता का घोषित किया गया था और एफएमडी के राष्ट्रव्यापी प्रकोप के कारण पशुपालकों के बहुत से पशुधन खराब हो गए थे उस समय भी एफएमडी वैक्सीन की खराब गुणवत्ता के कारण पशुपालकों को एक पैसे का भी मुआवजा नहीं दिया गया, हालांकि सरकार ने वैक्सीन उत्पादकों पर लगभग एक अरब रुपये का जुर्माना लगाया। जब तक टीके और टीकाकरण की विफलता के कारण पशुधन मालिकों के लिए कोई मुआवजा तंत्र नहीं होगा, तब तक टीके और टीकाकरण की गुणवत्ता में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है। 
14. मान्यता प्राप्त पशु रोग निदान प्रयोगशालाओं का अभाव: भारत में रोग निदान के लिए शायद ही कोई NABL और ISO से विधिवत मान्यता प्राप्त प्रमाणित पशु रोग निदान प्रयोगशाला है। यहां तक ​​कि सीडीडीएल, आरडीडीएल और डीडीडीएल भी अपने ​​नैदानिक ​​कार्य के लिए एनएबीएल या आईएसओ से मान्यता प्राप्त नहीं हैं, कुछ लोग अपने प्रबंधन के लिए आईएसओ मान्यता का दावा करते हैं (आईएसओ 9001:2000) लेकिन अपने नैदानिक ​​कार्य (आईएसओ 15189:2022) के लिए नहीं। किसी बीमारी के मान्यता प्राप्त निदान के बिना, आप बीमारी के कारण होने वाले नुकसान का दावा नहीं कर सकते हैं, और रोग नियंत्रण और रोकथाम के उपायों को सच्चाई से लागू नहीं कर सकते हैं। 
15. अनुकूलित (customized) वैक्सीन की अवधारणा का अभाव: टीकाकरण के बाद भी बीमारी फैलने का कारण बनने वाला स्ट्रेन-भिन्नता पशुधन में एक बड़ी समस्या है क्योंकि टीके या तो अप्रचलित स्ट्रेन या खराब इम्यूनोजेनेसिटी वाले स्ट्रेन या खराब क्रॉस-प्रोटेक्शन वाले स्ट्रेन से तैयार किए जाते हैं या फिर बहुत से अन्य कारणों से अप्रभावी सिद्ध होते हैं। टीकाकरण विफलता से निपटने के लिए, रोगज़नक़ों के छेत्र विशिष्ट  विभेदों का उपयोग करके अनुकूलित टीकों के उपयोग से समस्या का समाधान किया जा सकता है। हालाँकि, R&D सुविधाओं या R&D निवेश और गतिविधियों की कमी के कारण अधिकांश वाणिज्यिक वैक्सीन उत्पादकों के पास ऐसी सुविधाओं की कमी है। 
16. वैक्सीन-रोकथाम योग्य बीमारियों की खराब निगरानी और मॉनिटरिंग: भले ही सरकार ने पशुरोग निगरानी के लिए कई केंद्र स्थापित किए हैं (जैसे आईसीएआर-एनआईएचएसएडी, भोपाल; सीडीडीएल, आईसीएआर-आईवीआरआई; आरडीडीएल; डीडीडीएल; आईसीएआर-निवेदी और कई अन्य) भारत में बीमारी की निगरानी और मॉनिटरिंग अपने सबसे निचले स्तर पर है और यह अक्सर बड़े पैमाने पर रोग फैलने के बाद ही सक्रिय हो पाती है और आमतौर पर बीमारी के फैलने की कोई भविष्यवाणी भी  देश में अभी नहीं होती है। बेहतर कामकाज के लिए सुविधाओं की पारदर्शिता और एकीकरण की आवश्यकता है, जो इस उद्देश्य के लिए जरूरी फंडिंग द्वारा समर्थित होने पर ही संभव है। 
17. टीके की प्रभावकारिता जांच के लिए सीरो-निगरानी: भारत में अधिकांश पशु टीकों और टीकाकरण की गुणवत्ता से इतना समझौता किया गया है कि लगभग दो दशक पहले कई केंद्रों पर टीकाकरण से पहले और टीकाकरण के बाद के टाइटर्स की निगरानी की जरूरत महसूस महसूस की गई थी और ऐसे निगरानी केंद्रों को कई स्तर पर स्थापित भी किया गया था, लेकिन बाद में कुछ वैक्सीन उत्पादकों के राजनीतिक दबाव के कारण टीकाकरण की गुणवत्ता की निगरानी (न) करने के लिए और उसमें हेरफेर करने के लिए केंद्रीकृत किया गया था और आज यह काफी हद तक निष्क्रिय स्थिति में है। टीकाकरण के बाद खराब टाइटर्स की रिपोर्ट के बाद भी चूककर्ताओं के खिलाफ शायद ही कभी कोई कार्रवाई शुरू की गई, जिसका मुख्य कारण महत्वपूर्ण कमियों का पता लगाने के लिए जिम्मेदार तंत्र की कमी है। पशुओं के रोग नियंत्रण कार्यों में और भी कई छोटी-मोटी समस्याएं हो सकती हैं लेकिन केंद्रीकृत खरीद, वैक्सीन-गुणवत्ता नियंत्रण, बीमारी की जांच, बीमारी की रिपोर्टिंग और हितों के टकराव के कारण सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
उपरोक्त बिंदुओं के संबंध में आपके विचार अत्यधिक अपेक्षित हैं।

सन्दर्भ:

Bhoj R Singh. Gaps in Animal Vaccine Value Chain in India: How to Mend the Gaps? May 2024. DOI: 10.13140/RG.2.2.36003.87847. Report number: Epid/01/2024


Thursday, May 2, 2024

Myths about the emergence of Antimicrobial Resistance (AMR) spread by Scientists

 Myths about the emergence and Spread of Antimicrobial Resistance (AMR) in India spread by Scientists working in FAO, WHO, WAHO, ICMR and ICAR 

Antibiotic use in the livestock sector in India is responsible for the emergence and spread of AMR in India, it is said, “Application of antibiotics in the poultry and veterinary sectors are very common practice in India.” This is misinformation because, despite holding a very large population of poultry birds and livestock, the use of antibiotics in the livestock sector is much less compared to other nations and India stands in fifth place after China, the US, Brazil and Germany and expected to stand at 4th place in 2030 (Please see, https://www.researchgate.net/publication/329828053_Who_is_responsible_for_Emergence_and_spread_of_AMR_How_to_handle_it). If we compare by global livestock population and antibiotic use in the livestock sector, India stands much behind having livestock population almost equal to Brazil, more than twice to that in the USA, and three times than in China and more than 11 times than in Germany (https://worldpopulationreview.com/country-rankings/cattle-population-by-country), and it stands last in the antibiotic user line after all the four largest antibiotics users (in livestock sector) of the world.

The livestock sector is the least contributor to the emergence and spread of AMR because

1.     Antibiotic use is minimal in the livestock sector in India despite the fact antibiotics are available on-counter without prescription because livestock owners economically can’t afford misuse of antibiotics.

2.     Rampant isolation of bacteria, from livestock, resistant to imipenem, meropenem and other carbapenems, chloramphenicol and tigecycline (rarely used in animals and can’t used in animals due to too high cost) proves that AMR pathogens are flowing to livestock from human side not the vice a versa https://www.researchgate.net/publication/329828053_Who_is_responsible_for_Emergence_and_spread_of_AMR_How_to_handle_it.

Readers are suggested to read articles at the following links to understand the blame game played by the international community and greedy scientists of India:

1.     https://www.researchgate.net/publication/369627129_AMR_challenges_in_humans_from_animal_foods-_Facts_and_Myths

2.     https://www.researchgate.net/publication/313647307_Antimicrobial_Drug_Resistance_Pattern_of_Bacteria_Isolated_from_Cases_of_Abortion_and_Metritis_in_Animals

3.     https://www.researchgate.net/publication/299599050_Antimicrobial_and_herbal_drug_resistance_pattern_of_important_pathogens_of_animal_health_importance_at_Bareilly

4.     https://www.researchgate.net/publication/326247269_Who_is_responsible_for_Emerging_Antimicrobial_Drug_Resistance_Antibiotic_Use_in_Veterinary_Practice_or_Someone_Else

5.     https://www.researchgate.net/publication/329828053_Who_is_responsible_for_Emergence_and_spread_of_AMR_How_to_handle_it

The measures often suggested by scientists to control the emergence and spread of AMR in India are often misleading or partly erroneous because they are biased in their conscience. The biggest causes/ players of the emergence and spread of AMR are antibiotic-producing pharmaceuticals disposing of their wastes without treatment in the environment (https://www.thebureauinvestigates.com/stories/2018-01-24/big-pharma-fails-to-disclose-waste-leaked-from-factories), circulation of fake or substandard antibiotics in Indian markets, and disposal of raw human excreta and hospital wastes without treatment in the environment, and much more (read at https://www.researchgate.net/publication/326247269_Who_is_responsible_for_Emerging_Antimicrobial_Drug_Resistance_Antibiotic_Use_in_Veterinary_Practice_or_Someone_Else)