Thursday, August 14, 2025

मेरी हिंदी अकविता

ज्योतिषी 

इक बरहमन ने कहा है कि, लाला ये साल भारी है, 
हर इक काम में आएगी मुश्किल, ना कोई दोस्त रहेगा अपना, 
और अपने भी गैर हो जाएंगे, 
ग्रहों का कुछ फेर ऐसा है कि कहीं फंसने कि बारी है. 
ना कोई रात होगी चांदनी, ना सुनहरी चमकेगा सूरज, 
हर तरफ होगा आलमे-बेखुदी,  दफा हो जाएंगी सारी खुशियां, 
चाँद-सूरज पे राहु भारी है. 
डराने को तो खूब डरा गया है बरहमन, दुःखों से बचने का हिसाब बता गया है बरहमन, 
हिसाब सुनके थरथराता है कलेजा, क्या-क्या और बाकी है अभी, 
ये दौर तो अरसे से जारी है. 
सेहत पे बन आएगी अबके बरस, बीवी और बच्चे भी हैरां होंगे, 
सम्हल कर चलने कि हिदायत है, क्या से क्या हो जाये जाने, 
शनि की साढ़ेसाती भी जारी है. 
भला हो बरहमन तेरा, क्या-क्या ना कह दिया तूने, 
इसके अलावा भी बचा कुछ और था मुंह में, जो तूने कह दिया, 
बाप गुजरे तो बीता एक अरसा , इस बार चाचे कि बारी है. 
तूने तो मार डाला मुझे मौत से पहले बरहमन, पर जीने की आरजू अभी भी है, 
जो भी होगा देखा जाएगा जनाब, 
सभी गर्दोगुबार और हर मुसीबत के जानिब, ये ख्याल भारी है. 


एक सुन्दर सपना 
नहीं कोई हो सकता इससे सुन्दर सपना, 
जब तुमने बाँहों मैं भरकर मुझे कहा था अपना. 
मैं सपने जीता रहा जिंदगी में दूर तक, पर जाग गया हूँ आज. 
आँख खुली जब कानों में एक राज घुला, और तुमने बोला राज. 
कितनी सूखी, कमजोर कड़ी सी, तुम बाँहों में निर्वस्त्र पड़ी थी, 
ओंठो पर जब ओंठ धरे थे, इक रसधारा फुट पड़ी थी. 
कहीं से तब आवाज थी आई, सच थी तुम, या ये तन्हाई. 
सचमुच थी तुम ही, या फिर थी तुम इक सुन्दर सपना. 
मेरा सपना सुन्दर सपना था, पर कहीं कहीं तो अपना था. 
स्वारथ कि बूंदों में घुलकर, लालच कि किरणों में फंसकर, 
सपने का अस्तित्व ढूँढना मुश्किल है, 
नामुमकिन है उसको छू पाना, 
सपना तो आखिर सपना था, वो कब कहाँ पर अपना था, 
फिर भी तो सपना अपना था. 

ईश्वर 
आज सुनता हूँ तेरा नाम जब भी, बू आती है परायेपन की. 
जितना सोचता हूँ तुझे, कमजोर होता जाता हूँ, बाली की तरह. 
ठीक है तू अपना नहीं, पर इतना तो न सता कि बेगाना भी ना रहूं. 
सब जानता हूँ मैं, और तू भी, दुश्मनो से रिश्वत मोटी खाई है तूने, 
पर अपनी बेरुखी को इतना नो जता, कि एक अफसाना भी न रहूं. 
सब कुछ तो कह दिया तुमसे, अब कहने को क्या रहा बाकी, 
इतना भी बार बार ना बता मुझे, कि तुझसे अनजाना भी ना रहूं. 

रात और दिन, सुबह और शाम. 
सपने ही सपने हैं आँखों में मेरी, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 
अपने ही अपने हैं बातों में मेरी, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 
वक्त ने जो ठोकर है मारी, 
और किस्मत टुकड़े टुकड़े हो गई, 
मैं चुनता रहता हूँ वही टुकड़े, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 
जिंदगी के बदरंग से कैनवास पर, 
सब रंग फीके पड़ गए, 
ढूंढता फिरता हूँ रंग अब बाजार में, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 
लाया था पिछली बार रंग जिस दूकान से, 
 जगह भी पता है और वाकिफ भी हूँ उसके नाम से, 
पहुंचता कभी नहीं बस चलता रहता हूँ, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 
छुपाने को अपनी नाकामियां, बोलता हूँ झूठ भी, 
कभी ढूंढता नहीं, 
पर आ जाते हैं बहाने हारने के खुद ही मेरी जुबान पर. 
रुकता नहीं कभी भी, बस चलता ही रहता हूँ, 
रात और दिन, सुबह और शाम. 

मेरी जिंदगी 
मेरी जिंदगी भी क्या है, एक कटी पतंग है. 
कभी झाड़ पर अटकी हुई, कभी बादलों के संग है. 
कभी बारिसों में हंसती हुई, कभी बसंत में बे रंग है. 
कभी तूफानों से लड़ती हुई, कभी हारी हुई सी जंग है. 
कभी नमूना बन गई, कभी हर तरह बेढंग है. 
कभी जीतने का हौंसला है, कभी हारने से तंग है. 
कभी बड़ी महंगी बिकी बाजार में, 
और जतन से सजाया खरीदार ने, 
फिर उड़ गई, वो कट गई, झाड़ पर अटक गई, 
राह से भटक गई, डोर टूटी लटक गई, 
 कहाँ गई, पता नहीं, आज अपनी गुमनामी के संग है. 
कभी बादलों से बात थी, हर रात सुहानी रात थी, 
सब किसी के साथ थी, अनाथों की भी नाथ थी, 
 एक आंधी ऐसी चली, और आग ऐसी जली, 
 दिन में अँधेरा छा गया, आज देखो सुबह भी बदरंग है. 
फिर सवेरा आएगा, तिमिर सब छंट जाएगा, 
और पपीहा जाएगा, जिंदगी तो जिंदगी है, हर रोज नई जंग है. 

बुझी हुई सी लौ 
एक अरसा हुआ आग बुझे,
फिर क्यों कुरेदते हो खाक बार-बार चिंगारी की तलाश में, 
बड़े वक्त तक इंतेजार किया था तेरा 
और वो दफ़न हो गई थी कभी तेरे आने की आस में. 
यूँ तो कभी रास आया न सच के साथ-साथ चलना मुझे, 
पर चलता गया खुद को पाने की तलाश में, 
ना तो तुम मिले मुझे मेरे चैन, 
ना ही मैं बैठ पाया दो पल आराम से तुझे पाने की आस में. 
किनारा तो नजर आया था बार बार, 
पर मैं रुक ना सका तेरे पाने की आस में, 
मैं खोता चला गया सब चैन और आराम 
जो नहीं मिला उसे पाने की प्यास में. 

यात्रा 
मौत निःशब्द कब आती है, 
अक्सर सिसकियों के कई बाँध तोड़ जाती है. 
वर्षों तक सुनाई देती है उसकी आहट, 
अपने पीछे कई तूफ़ान छोड़ जाती है. 
वो नदी जो बहती है हमेशा अपनी हद में, 
कई बार किनारों के निशान छोड़ जाती है. 
नन्ही बून्द भी जाती है जब जहान से, 
वीरानों में, अंगारों पर भी अपने निशान छोड़ जाती है. 
तू तो आदम की है पैदाइस, 
 क्या पैदा हुआ जो बिखर गया, 
कुछ निशान छोड़ बाकी, व
र्ना दुनिया तो आती है और चली जाती है. 

भ्रम और भगवान् 
भगवान् तुम्हारी दुनिया में, 
दुःख है क्यूं, संताप है क्यूं , 
सच पर भारी झूठ है क्यूं ,
और पुण्य पर भारी पाप है क्यूं. 
जब सब को बनाया है तुमने,
फिर जात है क्यूं और पात है क्यूं , 
जब कण कण में तू ही समाया है,
फिर मेरे मन में पाप है क्यूं. 
जब संतोष कभी मिलना ही नहीं, 
तृप्ति की फिर आस ही क्यूं. 
जब साथ तुम्हे देना ही नहीं, 
फिर हरदम मेरे पास है क्यूं. 
जब पेट कभी भरता ही नहीं, 
फिर भूख है क्यूं और प्यास है क्यूं. 
जब मन को भटकते ही रहना था, 
फिर साधू वेश सन्यास है क्यूं. 
जब जग को रखना अँधियारा था, 
फिर तूने दी थी आँख ही क्यूं. 
जब दर्द तुझे सुनना ही नहीं था , 
फिर जुबां ये फ़रियाद ही क्यूं. 
जब खुशिया मेरी भाती  ही नहीं, 
फिर तूने बनाये फूल ही क्यूं और पात ही क्यूं. 
जब जल में जहर मिला देना था, 
फिर मन में जगाई प्यास ही क्यूं. 
जब हरदम दुःख ही दुःख देने थे, 
फिर दिन है क्यूं और रात है क्यूं. 
जब करना झूठा बंटवारा ही था, 
फिर तूने बनाई नाप ही क्यूं. 
जब हर आस पे ओले ही पड़ने थे, 
फिर तूने दी थी आस ही क्यूं. 

मेरा घर 
जिंदगी मेरे घर आना, 
 यहाँ पे हवाओं के झूले पड़े हैं, 
स्वागत में तेरे लताओं से बनाये हैं वंदनवार. 
घर में कोई ना कुण्डी लगी है, ना ताला जड़ा है, 
स्वागत में तेरे,
मैं गिराए खड़ा हूँ सारे दरोदीवार. 
जिंदगी मेरे घर आना, 
 आहट में तेरी मैं कब से खड़ा हूँ 
गला पड़ गया है गा-गा मल्हार. 

राम तेरे देश में
देशभक्त क्यों राजद्रोही कह फांसी लटकाये जाते हैं. 
देशद्रोहियों के माथे नित क्यों तिलक लगाए जाते हैं. 
देश पे मरने वालों को क्यों देश-निकाला मिलता है, 
देश के कर्णाधारों के दिल क्यों पत्थर के बनाये जाते हैं. 
सच पर चलने वालों को क्यूं आग में जलना पड़ता है. 
झूठे और मक्कारों को क्यूं नित जूस पिलाये जाते हैं. 
सच्चे लाल कमरों पर क्यूं जुर्म का डंडा चलता है. 
चोरों और लुटेरों को क्यूं नित हार पहनाये जाते हैं. 
मेहनतकश क्यूं भूखा है, हथेली पे टुकड़ा रूखा है. 
कर्महीन और ज्ञानहीन को क्यों छप्पन भोग लगाए जाते हैं. 
नीम क्यों काटा जाता है और क्यूं कीकर को सींचा जाता है. 
बेटी क्यों मारी जाती है और क्यूं पूत खिलाये जाते हैं. 
क्यूं देश की सीमा सूनी है, और चोर बुलाये जाते हैं. 
डाँकू और लुटेरों के घर क्यों चौंकीदार बचाते हैं . 
क्यूं जनता की राहें अँधेरी हैं, क्यूं मेहनत का फल अब फाका है. 
दिन में दीप जला-जला क्यों फीते कटवाए जाते हैं. 
खलनायक क्यूं जननायक बन हमें रोज भरमाते हैं. 
राम! तुम भी बिलकुल मेरे जैसे हो, 
बातों के गाल बजाते हो, 
फिर तेरे इधर उधर जाने पर क्यूं रस्ते रुकवाए जाते हैं. 
लगता है तू तो अँधा है, ठोकर खाने से डरता है, 
वर्ना तेरे मंदिर में क्यूं नित चीर भी लुटते जाते हैं. 
जा देख ली तेरी भगवानी भी, 
तुझ को जब ठोकर लगती है, नए भगवान् बनाये जाते हैं.

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