Saturday, December 27, 2025

जियें तो जियें क्यूँ?

 जियें तो जियें क्यूँ?

जब जीने का सलीक़ा आया तब तक ज़िन्दगी की शाम चुकी है और मन बार बार यह सवाल करने लगा है कि जीएं तो जीएं क्यूँ. यह प्रश्न ऐसा नहीं कि पहली बार मैंने या किसी ने अपने आप से पूँछा है या पूँछा होगा. यह प्रश्न सास्वत है हमेशा से रहा है और रहेगा. इस प्रश्न का उत्तर तलाशते कितने दार्शनिक कितने आम लोग इस संसार में आये और चले गए परन्तु प्रश्न सुलझा नहीं उलझता गया. वैसे मैं भी इस प्रश्न को हल करने के लिए यह प्रश्न अपने आप से नहीं पूँछ रहा हूँ यदि ऐसा होता तो मैं भी बुद्ध और नानक की तरह इसके उत्तर की तलाश में बहुत पहले निकल चुका होता क्योंकि प्रश्न तो सास्वत है, मेरे मेरे मन भी दशकों से है पर इतना उग्र होकर कभी नहीं खड़ा था जितना कि आज. क्या मैं इसलिए जी रहा हूँ कि मेरे बग़ैर ये दुनिया अधूरी है, सूनी हो जायेगी, या फिर रुककर मेरा इंतज़ार करेगी, या फिर मैं इस दुनिया में कोई नया चाँद या सूरज उगाने वाला हूँ, या फिर मैं कुछ ऐसा करने वाला हूँ कि दुनिया में कुछ ऐसा करूँगा कि दुनिया बदल जायेगी? मेरे आने से पहले भी दुनिया थी, मेरे जाने के बाद भी रहेगी, अर्थात मेरे होने होने से कोई अंतर नहीं पड़ता. अगर इस संसार में तथाकथित पैगम्बर, भगवान्, देवियां, देवता, प्रभुपुत्र, मनु, नानक, बुद्ध और भी जाने कितने अवतारी पुरुष-स्त्रियां या फिर सामान्य मानव ना आये होते तब क्या यह दुनिया ना होती? तब भी होती परन्तु शायद ऐसी ना होती. इस संसार में शायद मैं मैं ना होता आप आप होते, परन्तु दुनिया होती तो अवश्य, संसार में इतना कुछ अवाल-बवाल  है जिसका ना पहले पता था, ना अब पता है ,और जितना जानने की कोशिश होती रही उतना ही जटिल यह सवाल और बवाल होता जाता है. तो यह नहीं तो कोई दुनिया अवश्य ही होती क्योंकि इस संसार में रहने, जीने और मरने वालों को, या फिर किसी को भी नहीं पता कि दुनिया है क्यों, यह सब है ही क्यों. शायद इस सवाल को अपने आप से पूंछते रहे कबीर ने यह लिखा था, "सुखिया सब संसार है, खाये और सोये. दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये".

  मेरे सोचने सोचने से इस प्रश्न (मैं क्या हूँ, क्यों हूँ, जीता हूँ कि मरता हूँ, सोता हूँ  कि जगता हूँ, कुछ करता भी हूँ कि बस यूँ ही हूँ) के हल होने की संभावना उतनी भी नहीं जितनी पहले कभी रही होगी या रहेगी क्योंकि मैं तो कोई ऐसा विचारक नहीं हूँ जो अपना जीवन इसी प्रश्न को हल करने में बिताकर और संसार को और उलझा कर चले गए (गए भी कि नहीं गए इसका भी किसी को पता नहीं). परन्तु, इस सवाल को सोच सोच कर समय बीतता जा रहा है, कहीं सुबह तो कहीं शाम होती जाती है, लगता है कि समय ही है जो मुझे और औरों को भी अपने साथ खींचता चल रहा है. परन्तु वो भी क्यों चल रहा है शायद उसे भी मालूम हो.

इसलिए इस संसार में यदि सुखी रहना है तो खाओ (खाने के लिए खाना चाहिए, खाना पाने के लिए प्रयास, कर्म और समय) और सोओ (सोने के लिए चैन चाहिए, चैन के लिए विचार शून्यता होनी चाहिए वरना तो कबीर कि तरह रोते-रोते ही संसार में रहो), रहना तो तब भी है और अब भी है. आपको कैसे रहना है और कैसे नहीं रहना यह भी कहाँ वश में है, हाँ विचार शून्यता के लिए प्रयास कर सकते हैं आज भी और पहले भी विचारशून्यता उत्पन्न करने के लिए संसार में अनगिनत प्रयास हुए हैं दवा-गोली की तलाश हुई है, और कितनी ही आज संसार में उपलभ्ध भी हैं, विचारशून्यता इस मानविक संसार को चलते रहने लिए एक परम आवश्यक औषधि है. इस संसार में जो विचारशून्य हो गया उसने परमतत्व, या कहो शांति को प्राप्त कर लिया जो विचार करने में उलझ गया वो उलझ ही गया. संसार एक बहती हुई धारा, या हिलोरे खाते समुद्र, या स्थिर खड़े पहाड़ों, बहती हुई हवाओं में जीवों का जीते जाने का नाम है, इसमें जब कुछ लोग मुंह उठाकर क्यूँ, कहाँ, कैसे, कब, किसलिए जैसे सवाल करते हैं तब जो हलचल या फिर तरंग उत्पन्न होती है वाल्तेयर जैसे लोग उसे जीना कहते हैं, कबीर उसे रोना कहते हैं, नेता उसे विद्रोह कहते हैं, धार्मिक या धर्मग्रन्थ  उसे नास्तिकता कहते हैं, सवाल करने वाले अपने आप को विचारक और दार्शनिक माने लगते हैं और फिर इसी संघर्ष में दुनिया  चलती है, रूकती है, बहकती है, चहकती है, महकती है, और भी पता नहीं क्या क्या.  तो क्या यही सब होने का नाम ज़िन्दगी है?  

शांति क्या है, क्या विचारशून्यात ही शांति है? विचारशून्यता उत्पन्न करने के लिए हमेशा प्रयास या दवा-गोली की ही जरूरत हो ऐसा भी नहीं है, नींद आती है तो अपने साथ विचारशून्यता लेकर आती है और और शांत  होते हैं तब हम सो जाते हैं, जब विचार करते-करते थक जाते हैं, या काम करते करते थक जाते हैं तब भी नींद आती है, परन्तु बग़ैर गोली के नींद आती है थकने के बाद ही. थक जाना ही शायद शांति है या फिर अंत, जब हमारा शरीर जीकर थक जाता है, घिंस जाता है और हलचल बंद करके सारी मशीनरी बंद करके शांत हो जाता है उसका नाम मृत्यु है अर्थात मृत्यु ही अंतिम शांति है. कुछ विचारक कहते हैं कि अतृप्त मृत्यु को प्राप्त करके भी शांति नहीं पाते अर्थात अतृप्त और तृप्त का भी एक संसार है. तृप्ति क्या है? विचारहीन होना या फिर खा पी कर सो जाना! तृप्ति क्या शारीरिक है या मानसिक? कहते हैं मस्तिष्क से मानसिकता आती है, तो क्या मष्तिष्क शरीर से अलग है? तब क्या मानसिकता शारीरिक नहीं है? अगर मष्तिष्क शरीर से अलग है तो शरीर की मृत्यु के बाद भी क्या मस्तिष्क जीता है? विज्ञान तो कहता है कि ह्रदय का स्पंदन रुकने बाद सबसे पहले मरने वाला मस्तिष्क ही होता है. तब क्या विज्ञान भी झांसा है, लगता ज़िन्दगी एक झांसा ही है या फिर झांसे का एहसास. ये सब उलझने और और उलझाने वाले विचार ही शायद जीने का कारण हैं.

No comments:

Post a Comment