रोगाणुओं में एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता और आयुर्वेदिक एंटीबायोटिक दवाएं: शोध की आवश्कता
डा. भोज राज सिंह
प्रधान वैज्ञानिक एवं विभागाध्यक्ष, जानपदिक
रोग विभाग, भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान, इज़्ज़तनगर, बरेली उत्तर प्रदेश
Video link: https://youtu.be/VpBuQVKV1sw
दुनियाभर में चारों और
एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने
की ख़बरें आप अक्सर ही
पढ़ते/ देखते होंगे, इसका कारण है
जीवाणुओं की एंटीबायोटिक से
भरे वातावरण में जीवित रहने
की जद्दोजहद के चलते उनमे
एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोधक
शक्ति का विकास. यह
विकास कोई अनोखा नहीं
है क्योकि सभी जीवधारी अपनी
संतति को लगातार होते
परिवर्तनों से मुकाबला करने
के लिए सतत विकास
की प्रक्रिया अपनाते हैं. यह विकास
या तो अचानक ही
किसी पूरी तरह से
प्राकृतिक उत्परिवर्तन (म्युटेशन) की प्रक्रिया से,
या फिर किसी पास
या दूर के सम्बन्धी
या सहयोगी से सम्मिलन स्वरुप
होता है या फिर
धीमे सतत विकास के
स्वरुप जिसे अनुकूलन कहते
हैं के कारण होता
है.
परन्तु
अहम् प्रश्न यह है कि जीवाणुओं के वातावरण में ये एंटीबायोटिक दवाएं आती कहाँ से हैं?
१.
एंटीबायोटिक दवाओं के गलत और
जरूरत से ज्यादा मनुष्यों,
पशुओं और पक्षियों के
रोगों में उपचार के
दौरान ये दवाएं मरीजों
के विभिन्न उत्सर्जनों के द्वारा वातावरण
में आ जाती हैं
और अनुपचारित मल-आदि के
रास्ते होती हुई नदियों,
तालाबों, झीलों और समुद्रों में
मिल जाती हैं. यह
प्रदूषण वातावरण में फैलकर जीवाणुओं
को अनुकूलन के लिए बाध्य
करता है.
२. एंटीबायोटिक
का अनावश्यक तौर पर पशुओं
और पक्षियों के उत्पादन में
लगातार बढ़ता प्रयोग भी
वातावरण को लगातार एंटीबायोटिक
के बोझ तले दबा
रहा है.
३.
मनुष्यों द्वारा एंटीसेप्टिक पदार्थों का लगातार बढ़ता
उपयोग जैसे कि हस्त-पक्षालक (हैंड सैनिटाइज़र्स), एंटीसेप्टिक
साबुन, पाउडर आदि, ये सभी
भी जीवाणुओं को एंटीबायोटिक से
भरे वातावरण में अनुकूलन के
लिए बाध्य करते हैं.
४.
बाजार में नकली या
अवमानक एंटीबायोटिक दवाओं का प्रचलन होने
से एंटीबायोटिक दवाएं कम मात्रा में
पहुंचकर वातावरण में या फिर बीमारों के शरीर में
उपस्थित जीवाणुओं को अनुकूलन के
लिए उपयुक्त वातावरण के निर्माण करती
हैं.
५.
वातावरण के एंटीबायोटिक दवाओं
से प्रदूषित होने का एक
सबसे बड़ा कारण है
एंटीबायोटिक, डिसइंफेक्टेंट और एंटीसेप्टिक बनाने
वाले संस्थानों / फार्मा कंपनियों द्वारा अपशिष्टों का बिना उपचार
किये ही वातावरण (नदिओं,
नालों और झीलों) में
छोड़ दिया जाना. वैज्ञानिक
अध्यनों में पाया गया
है कि गिर के
जंगलों और हैदराबाद के
पास वाले जंगलों में,
जहाँ की फार्मा-कंपनियों
के बड़े गढ़ या
केंद्र हैं, बहुत से
वन्य प्राणियों में सुपरबग (सभी
या ज्यादातर एंटीबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधी
रोगाणु) के संक्रमण ही
मृत्यु का सबसे बड़े कारण होते
हैं, इन जंगलों से
प्रवाहित नदियों के पानी में
उपस्थित एंटीबायोटिक और एंटीसेप्टिक सुपरबग
के उदभवों के विकास के
लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करती
हैं.
यह तो सीधी
सी बात है कि
किस तरह से हम
सुपरबग के विकास और
फैलाव को रोक सकते
हैं परन्तु अनवरत, तेज और सस्ते
विकास कि चाह यह
सब नहीं करने देगी.
अतः विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दशकों पहले
सलाह दी थी कि
एंटीबायोटिक दवाइयों के विकल्प तलाशे
जाएँ. फिर चहुँ ओर
आयुर्वैदिक और अन्य प्राचीन
उपचार के तरीकों से
संक्रमण को रोकने के
बारें में शोध में
बाढ़ सी आ गई,
ओर अधकचरे शोधों के फ़लस्वरूम बहुत
सी कंपनियां वैकल्पिक आयुर्वेदिक एंटीबायोटिक्स के नाम पर
उत्पाद बनाने लगीं.
भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान
संस्थान इज़्ज़तनगर से २०२२ में
प्रकाशित एक शोध (Singh et al., 2022), जो
भारतीय बाजार में उपलब्ध दो
सबसे ज्यादा उपयोग होने वाली आयुर्वेदिक
एंटीबायोटिक दवाओं, फीफाट्रोल (ऐमिली फार्मा निर्मित) ओर सेप्टिलिन (हिमालय
ड्रग कंपनी द्वारा निर्मित) के जीवाणुओं पर
उनके संक्रमण रोकने की शक्ति को
समझने के लिए किया
गया था, उससे पता
लगा कि ये दवाएं
सिर्फ एक तिहाई रोगाणुओं
को ही रोकने में
सक्षम थीं अतः हम
एक भ्रम में जी
रहे हैं कि ये
दवाएं हमें संक्रमण से
बचा रही हैं या
फिर बचा सकती हैं.
प्रकाशित अध्ययन में इन दवाइयों
के २२ प्रजातियों के ८० रोगाणुओं
पर परीक्षण का विवरण है.
विवरण से विदित होता
है कि इन दोनों
दवाईयों से कहीं ज्यादा
रोगाणुरोधी तो तुलसी का
तेल है जो ८६%
से ज्यादा रोगाणुओं को समाप्त करने
में सक्षम है. दोनों ही
दवाइयों के जलीय अर्क
में किसी जीवाणु को
मारने की शक्ति नहीं
थी जो भी शक्ति
थी वो सिर्फ ऐलकोहालिक
अर्क में ही थी
इस
अध्ययन से यह भी
लगता है कि आयुर्वैदिक
एंटीबायोटिक दवाइयों के गुणवत्ता मानक
ना होने से उपभोक्ता
को आसानी से भ्रमित ओर
ठगे जाने की संभावना
रहती है.
इस अध्ययन की सबसे बड़ी
कमी यह है कि
इसमें आयुर्वेदिक दवाइयों को एलोपैथिक दवाइयों
के जांचने के तरीके जांचा
गया है जबकि हम
जानते हैं कि आयुर्वेद
ओर एलोपथिक विधाओं में रोग कि
उत्पत्ति ओर उनके उपचार
में सैद्धांतिक विभिन्नता है अतः दवाइयों
की प्रभाविकता जांचने तरीके भी भिन्न होने
चाहिएं परन्तु आयुर्वेदिक आचार्यों ने औषधियों कि
गुणवत्ता जांचने के लिए उस
तरह तरीके विकसित नहीं किये जैसे
कि एलोपथिक विधा के वैज्ञानिकों
ने किये हैं. अतः
यह अध्ययन आयुर्वेद में औषधियों की
गुणवत्ता जांचने के उचित तरीकों
के विकास की आवश्यकता को
भी इंगित करता है.
References
1. Singh BR et al. Evaluation of Fifatrol, Septilin, Giloy (Guduchi, Tinospora cordifolia) and Oils of Guggul (Balsamodendron mukul) and Holy Basil (Tulsi, Ocimum sanctum) for their Antimicrobial Potential. Acta Scientific Microbiology. 5.10(2022): 31-41.
2. https://www.researchgate.net/publication/329828053_Who_is_responsible_for_Emergence_and_spread_of_AMR_How_to_handle_it
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4. https://www.researchgate.net/publication/264165886_Emergence_of_antimicrobial_drug_resistance_is_mandatory_for_life_on_the_earth