शाकाहारी/ गैर-शाकाहारी, कोषेर/ गैर-कोषेर और हलाल/ गैर-हलाल टीकों और दवाओं का विवाद और समाधान
रिसर्चगेट पर प्रकाशित लेख पर आधारित (Vegan/ non-Vegan, Vegetarian/ non-Vegetarian, Kosher/ non-Kosher and Halal/non-Halal Vaccines and Medicines; https://www.researchgate.net/publication/381483065_Vegan_non-Vegan_Veg_non-Veg_Kosher_non-Kosher_and_Halalnon-Halal_Vaccines_and_Medicines)
एक नए सार्वभौमिक धर्म का उदय
हम 100 वर्षों से भी अधिक समय से विभिन्न रोगों से प्रतिरक्षा हेतु टीकों का उपयोग कर रहे हैं। और टीकाकरण से बहुत से रोगों पर न सिर्फ नियंत्रण पाया है बल्कि कुछ को समूल नष्ट कर दिया है, एडवर्ड जेनर ने पहला चेचक टीका 1796 में लगाया था। सेंट लुइस में, टेटनस-दूषित डिप्थीरिया एंटीटॉक्सिन के प्रयोग से 13 बच्चों की मृत्यु हो गई और फिर 1901 की शरद ऋतु में, कैमडेन, न्यू जर्सी में नौ बच्चों की ख़राब गुणवत्ता के चेचक के टीके से मृत्यु हो गई। फिर भी टीका विकास और टीकाकरण जारी रहा, हाँ टीके से होने वाली हानियों से बचाने के लिए प्रशासन जगा, और सरकार द्वारा जैविक उपचारों (टीकों) की शुद्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए १९०२ का पहला बायोलॉजिक्स कंट्रोल एक्ट अस्तित्व में आया जिसके बाद विभिन्न देशों में समान अधिनियम लागू हुए।
पृथ्वी पर शायद ही कोई
ऐसा व्यक्ति हो जिसे कभी टीका ना लगा हो, निश्चित रूप से उन टीकों को शाकाहारी, कोषेर,
जैन या हलाल के रूप में कभी वर्गीकृत नहीं किया गया था क्योंकि ये सभी शब्द आहार से
संबंधित हैं, दवाओं और टीकों से नहीं। यदि दवाओं और टीकों के मामले में शाकाहारी, कोषेर
या हलाल का प्रश्न मौजूद है तो हम पहले ही अपना धर्म खो चुके हैं और अपने धर्म-कर्म का असंख्य बार
उल्लंघन कर चुके हैं क्योंकि टीकों और अन्य औषधियों के निर्माण में एक या दूसरे धर्म
द्वारा निषिद्ध पदार्थों का बेहिसाब उपयोग किया गया है । परन्तु प्रश्न यह उठता है
कि शाकाहारी/गैर-शाकाहारी, जैन/गैर-जैन, कोषेर/गैर-कोषेर, और हलाल/गैर-हलाल टीकों का
सवाल कुछ साल पहले ही क्यों सामने आया? ऐसा प्रतीत होता है कि यह संभवतः वैश्विक स्तर
पर कोविड-१९ (COVID-19) टीकाकरण कराने को मजबूर करने के निरंकुश निर्णयों के खिलाफ
लोगों द्वारा एक प्रतिक्रियावादी टीकाकरण विरोधी कदम है। इस धर्म प्रभावित विद्रोही
स्वर से न केवल कोविड-१९ वैक्सीन बल्कि उसके निर्माण में उपयोगित अर्धसत्य या कहो अधूरे
परीक्षणों पर आधारित नवीन वैक्सीन-तकनीक (एमआरएनए) और आपातकालीन-अनुमोदित टीकों की
आधी-अधूरी परीक्षित प्रभावकारिता और सुरक्षा शक्ति के परीक्षण से बचने के लिए लोगों
को धर्म और आस्था में सांत्वना मिलनी शुरू हो गई, क्योंकि ईश्वर और उसमे आस्था ही मनुष्य
के पास उपलब्ध अंतिम उपाय है। सरकारों द्वारा प्रताड़ित असहाय जाती समूहों में धर्म-आधारित
कोविड-१९ टीकाकरण की अस्वीकार्यता का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण सूचना क्रांति भी हो सकती है, विशेष रूप से सोशल मीडिया (आधे सच
के साथ दुर्भावनापूर्ण जानकारी भी प्रदान करने वाला माध्यम, https://link.springer.com/article/10.1007/s10943-023-01798-4),
इंटरनेट के माध्यम से जनमानस द्वारा टीकों और दवाओं की संरचना के बारे में आवश्यक और
अनावश्यक जानकारी खोजना व जानना. हालांकि,
शोधकर्ताओं और फार्मास्यूटिकल्स सहित विभिन्न समूहों के निहित स्वार्थ भी इसका महत्वपूर्ण
कारक भी हो सकते हैं जिनका उद्देश्य भी लोगों कि जातिगत और धर्मगत भावनाओं को उद्वेलित
करके धन कमाना होता है खासतौर से ऐसे समूह जो विशिष्ट जातीय और धर्म समूहों द्वारा
स्वीकार्य उत्पाद बनाकर धनार्जन करते हैं या पैसा बनाने में रुचि रखते हैं. फार्मास्यूटिकल्स
हमेशा उपभोक्ताओं को उनकी विशिष्ट पसंद, जातीय मान्यताओं और धार्मिक चिंताओं के लिए
आर्थिक रूप से शोषण करने के लिए आतुर होते हैं। इस अचानक उपजे टीका-विरोध आंदोलन का
असर तब और बढ़ गया जब विभिन्न स्थानों से कोविड-१९ टीकों के दिष्प्रभावों की सूचनाएं
(कुछ झूठी कुछ सच्ची) जनमानस को उद्वेलित करने लगीं तथा अब ना सिर्फ कोविड-१९ टीकों
का बल्कि अन्य टीकों का विरोध भी वैश्विक स्तर पर बहुत से स्तरों पर होने लगा ।
रोगों से बचाव के लिए
विगत वर्षों में बहुत से टीके विकसित हुए हैं और उनके उपयोग से कितने ही रोग नियत्रण
में आएं हैं फ़लस्वरूम मानव जाती का विकास और संवर्धन पिछले ७५ साल में ऐतिहासिक रहा
है और साथ ही चहुँ और धार्मिक उन्माद भी बढ़ा है, परन्तु हम टीकों और टीकाकरण का विरोध
धार्मिक आधार पर करते हुए यह भूल जाते हैं कि मनुष्य जीवन है तो धर्म भी है । जब पृथ्वी
पर मनुष्य नहीं था तो कोई धर्म भी नहीं था, सनातन कहलाने वाले धर्म का इतिहास भी कुछ
हजारों सालों का ही है, और ज्यादातर धर्म पिछले ३००० हजार साल की ही देन हैं । धर्मों
का उद्भव मानव समाज की एक विडम्बना भी कह सकते क्योंकि विभिन्न धर्मों ने विज्ञान के
विकास में अक्सर बाधाएं ही उत्पन्न की हैं एवं मानव समाज को मानसिक रूप से गुलाम, डरपोक
और स्थिर प्रवृत्ति का बनाने में ज्यादा योगदान किया है ।
पशुओं पर प्रयोग और
पशु उत्पादों का विज्ञान के विकास में उपयोग या टीकों और दवाओं में उपयोग तो बहुतों
को पशुओं पर अत्याचार नजर आता है और शाकाहारी भोजन का गुणगान करने वाले इस संसार में असंख्य हैं परन्तु
वे क्यों भूल जाते हैं कि पौधे भी जीवित हैं और उनके उत्पादन भूमि को कृषित करते समाया
कितने ही जीव नष्ट हो जाते हैं, कितने ही जीव खेती में प्रयोग हो रहे ऑर्गनिक और इनऑर्गनिकों
तत्वों के प्रयोग नष्ट हो जाते हैं या नष्ट कर दिए जाते हैं । मानव जीवन का विकास अपने
आप में ही एक सर्वभक्षक प्राणी का उद्भव है । जहाँ-जहाँ भी मनुष्य नहीं पहुंचा है वहां
वहां ही जीवन में ज्यादा विविधता है । १९८६ में जब चैर्नोबिल बिजलीघर में परमाणु हादसा
हुआ था उसके बाद वाहन लाखों वर्ग किलोमीटर में मानव का प्रवेश वहां उपस्थित संभावित जानलेवा विकिरण के प्रभाव से मानव जाती को बचाने
के लिए प्रतिबधित कर दिया गया था, परन्तु अब जब वहां मानव नहीं है, और घातक विकिरण
अभी भी है, उस छेत्र में पशु-पक्षियों कि संख्या में अद्भुत वृद्धि हुई है अर्थात प्राणियों के जीवन को किसी और से नहीं मानव
और उसके विकास से ही सबसे ज्यादा खतरा है. तो क्या ये धार्मिक प्रजातियां जो विज्ञान
के प्रसार में पशुओं के उपयोग को अमानवीय मानते हैं पृथ्वी और उस पर रहने वाले गैर-मानव
जीवों के भले के लिए मनुष्य जाती को पृथ्वी से मिटाने का प्रयास करने के लिए आगे आएँगी?
जैन और शाकाहारी समूह
जानवरों और उनके उत्पादों के सेवन को अमानवीय मानते हैं और वे पशुओं के उपयोग से निर्मित
कोई टीका और कई जीवनरक्षक दवाएं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार लेना नहीं चाहते, और इस
तथ्य को ध्यान में रखते हुए विशेष रूप से शाकाहारियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए,
पौधों में व्यक्त मेडिकैगो कोविफेन्ज़® कोविड-१९ वैक्सीन, एक SARS-CoV-2 स्पाइक पुनः
संयोजित प्रोटीन वायरस जैसे कण (वीएलपी) विकसित किये गए हैं । हालांकि, ऐसे शाकाहारी
टीकों का परीक्षण और नैदानिक परीक्षण कैसे करें यह प्रश्न अभी भी आधार में ही लटका
है । क्या शाकाहारी और जैन स्वयं को सार्वजनिक उपयोग/ सार्वजनिक बिक्री की मंजूरी के
लिए आवश्यक टीकों/ दवाओं पर सभी परीक्षण (सुरक्षा, शक्ति और प्रभावकारिता) करने के
लिए प्रस्तुत करेंगे? जैन और शाकाहारी कैसे भूल सकते हैं कि पौधों में वीएलपी व्यक्त
करने से पहले की प्रक्रिया में पशुओं में कितना काम किया गया था, और कितने पशु उत्पादों
का उपयोग किया गया था? यह एक ऐसा ही मामला है जैसा कि हम कहते हैं, मैंने बाजार से
मांस खरीदा है, मैंने किसी भी जानवर को नहीं मारा है, और मैं उस मांस को खरीदता हूं
या नहीं इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आखिरकार, यह बाजार में है और उपभोग करने
के निमित्त है, मैं नहीं तो कोई और उसे खरीदेगा और खायेगा ।
ज्यादातर विषाणुजनित
और कुछ जीवाणुजनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए लगभग 50% टीके 7-12 दिनों तक सेये गए अण्डों
के भ्रूण को संक्रमित करके तैयार किये जाते हैं और इस प्रक्रिया में सभी अण्डों में उपस्थित जीवित-भ्रूण नष्ट हो जाते हैं. सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले अंडा-आधारित टीकों में इन्फ्लूएंजा वैक्सीन, महामारी इन्फ्लूएंजा वैक्सीन (H1N1), पक्षी या स्वाइन फ्लू के टीके, पीत-बुखार टीका, क्यू बुखार टीका, रेबीज टीका, अधिकांश एवियन वायरल टीके, जापानी इंसेफेलाइटिस टीका, क्लैमाइडिया, रिकेट्सिया (टाइफस टीका), चेचक का टीका शामिल हैं
(https://uomustansiriyah.edu.iq/media/lectures/6/6_2021_09_12!12_02_26_AM.pdf).
अर्थात सभी सभी शाकाहारी, और जैन पहले ही एक या अन्य टीका लगवाने के बाद अपना धर्म और विश्वास खराब कर चुके हैं. ऐसे लोगों के धर्म और विश्वास को भुनाने के लिए एक अंडा-मुक्त फ्लू वैक्सीन (फ्लुब्लोक क्वाड्रिवेलेंट) को संयुक्त राज्य अमेरिका में उपयोग के लिए लाइसेंस दिया गया है, और शिंगल्स वैक्सीन शिंग्रिक्स® में कोई अंडा उत्पाद नहीं है, लेकिन यह शाकाहारी या जैनियों के लिए नहीं है बल्कि यह उनके लिए है
जिन्हे ओवलब्यूमिन (अंडे के प्रोटीन) से एलर्जी है क्योंकि इसमें प्रयोग किया जाने वाला एक घटक चीनी हैम्स्टर के अंडाशय कोशिकाओं में उत्पन्न होता है, अर्थात जीव हत्या
होती ही होती है ।
हिंदु (जो धार्मिक मान्यता के कारण गाय को माता मानते हैं
तो गाय के मांस या गाय के रक्त उत्पादों को स्वीकार नहीं करते), जैन, और शाकाहारियों का धर्म और विश्वास पहले ही भृष्ट हो चुका है क्योंकि उनके पास ऐसे बहुत से वैक्सीनों और दवाओं से बचने का कोई विकल्प नहीं है जिनके उत्पादन में
भ्रूण गोजातीय सीरम (FBS) का इस्तेमाल किया जाने वाला महत्वपूर्ण घटक है। वैक्सीन उत्पादन के दौरान जिस मीडिया का उपयोग किया जाता है, गौजातीय सीरम एल्ब्यूमिन (एफबीएस में एक महत्वपूर्ण घटक) (बीएसए) के प्रति मनुष्यों में संभावित एलर्जी प्रतिक्रियाओं के कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने बीएसए की ≤50 नैनो ग्राम बीएसए की प्रति खुराक ऊपरी सीमा निर्धारित की है. अधिकांश नेज़ल स्प्रे और मुंह से लिए जाने वाले
टीकों में गौ-एल्ब्यूमिन बीएसए होता है जो वैक्सीन एंटीजन को नाक या मुंह की म्यूकोसल बाधाओं को बायपास करने में मदद करता है। गौजनित एल्ब्यूमिन से एलर्जी के अलावा एफबीएस के उपयोग को सीमित करने के लिए एक और प्रमुख वैज्ञानिक चिंता है प्रियन, वायरस, माइकोप्लाज्मा, या अन्य अज्ञात ज़ूनोटिक रोगाणुओं सहित अनेक रोगजनकों का संभावित संचरण है । गौजनित एल्ब्यूमिन के उपयोग से बचने के लिए, मानव एल्ब्यूमिन के उपयोग का सुझाव दिया गया है (लेकिन यहाँ पर अप्रत्यक्ष नरभक्षण का डर उभरता है) । वायरल एंटीजन को स्थिर करने और एंटीजन को शीशियों की दीवारों से चिपकने से रोकने के लिए मानव सीरम एल्ब्यूमिन (एचएसए) के उपयोग से जीएसके ने वैरिसेला वैक्सीन बनाया है।
टीकों और कई अन्य दवाओं के उपयोग से न केवल जैनियों, हिंदुओं, और शाकाहारियों की धार्मिक आस्था और भावनाओं को खतरा हुआ है, बल्कि जिलेटिन (सबसे आम स्टेबलाइजर जो लगभग हमेशा जीवित वायरस टीकों में उपयोग किया जाता है और आमतौर पर सूकर मूल का होता है) उपयोग से मुसलमानों और यहूदियों का धर्म भी भी खतरे में पड़ गया है। जिलेटिन आमतौर पर सूअर या गो हड्डियों, त्वचा या ऊतक से प्राप्त होता है। मुसलमानों और यहूदियों के धर्मों में सूअर खाने की अनुमति नहीं है (सूअर मुसलमानों के लिए हराम हैं और यहूदियों के लिए उपभोग योग्य नहीं हैं क्योंकि यह एक ऐसा शाकाहारी जानवर है जो जुगाली नहीं करता है) (https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC10612269/)। लोगों के धार्मिक विश्वास को भुनाने के लिए, रैबीज़ को रोकने के लिए रैबावर्ट और शिंगल्स को रोकने के लिए शिंग्रिक्स टीकों को सुअर जिलेटिन प्रयोग किए बिना तैयार किया गया है. लेकिन जिलेटिन का उपयोग कैप्सुलेटेड दवाओं और टीकों (विविटिफ़, एक टाइफाइड वैक्सीन) की एक बहुत विस्तृत श्रृंखला में किया जाता है. विभिन्न टीकों में सुअर जिलेटिन की अलग-अलग मात्रा 2 मिलीग्राम/ खुराक (फ्लू के लिए फ्लुमिस्ट) से लेकर 14.5 मिलीग्राम/ खुराक (खसरा, कण्ठमाला, रूबेला और वैरिसेला के लिए एमएमआर II) तक होती है। मांस और मांस उत्पादों के उपयोग के लिए कोषेर और हलाल प्रमाणित जैसे उत्पाद लोगों के धार्मिक विश्वास को भुनाने के अलावा और कुछ भी संभव
नहीं लगते। कारखाने में उत्पादित पशु उत्पादों और वैक्सीन और दवा में उपयोग किए जाने वाले अधिकांश पशु-मूल अवयवों में ऐसे प्रमाणपत्रों की वैधता हमेशा संदिग्ध होती है। इसके अलावा, कई देशों में जहां मांस और अन्य उत्पादों के लिए हर दिन लाखों जानवरों की बलि दी जाती है न केवल हलाल प्रमाणीकरण बल्कि उत्पाद उपभोग उपयुक्तता के लिए वैधता के प्रमाणीकरण की सच्चाई भी संदिग्ध है।
आधुनिक चिकित्सा में उपयोग किए जाने वाले पशु मूल के अन्य सामान्य उत्पाद लैक्टोज, ग्लिसरीन और स्टीयरिक एसिड हैं, मधुमेह रोगियों के लिए आवश्यक इंसुलिन पशु अग्न्याशय से निकाला जाता है, और बांझपन के इलाज के लिए मानव कोरियोनिक गोनाडोट्रोपिन (एचसीजी) गर्भवती महिलाओं के मूत्र से निकाला जाता है, उच्च रक्तचाप इलाज के लिए थायरोक्सिन भेड़ के थायरॉयड से निकाला जाता है, विटामिन ए, डी और ओमेगा -३ फैटी एसिड मछली के तेल से प्राप्त होते हैं, सांप के जहर के खिलाफ एंटीटॉक्सिन सीरम, और टेटनस एंटीटॉक्सिन सीरम आदि घोड़े के रक्त के उत्पाद हैं, या जानवरों में उत्पादित होते हैं, हेपरिन और एनोक्सापारिन (रक्त को पतला करने वाले), थायराइड हार्मोन, पैनक्रेलिपेज़ (अग्नाशय अपर्याप्तता के लिए) सूअरों से प्राप्त होते हैं, संयुग्मित एस्ट्रोजेन (रजोनिवृत्ति की समस्याओं का इलाज करने के लिए) घोड़ी के मूत्र से आते हैं, इंट्रालिपिड (कोमा में लोगों के लिए आवश्यक अंतःशिरा पोषण) और प्रोपोफोल (डिप्रिवन, एक एनेस्थेटिक रिलैक्सेंट) मुर्गी के अंडे से प्राप्त
होते हैं। सांपों, मकड़ियों, सेंटीपीड और कई अन्य जानवरों के जहर से प्राप्त
https://www.goodrx.com/well-being/diet-nutrition/medications-that-contain-animal-byproducts)
विषाक्त पदार्थों का उपयोग पुराने दर्द, हृदय की समस्याओं और टाइप-2 मधुमेह के इलाज के लिए किया जाता है. गर्भवती स्त्रियों और कमजोर मनुष्यों को दिए जाने वाले सबसे अच्छे कैल्शियम और लौह तत्व आमतौर पर पशु मूल के होते हैं ।
न केवल दवा और टीकों में बल्कि हम अपने दैनिक जीवन में कई पशु उत्पादों का उपयोग करते हैं जैसे, साबुन बनाने में उपयोग किया जाने वाला सोडियम टैलोवेट, टैलो (मवेशियों और भेड़ जैसे जानवरों की वसा) से आता है, शेलैक (लाख) मादा कीड़ों द्वारा उत्सर्जित एक राल है, रेशम रेशमकीटों से आता है, रेशम प्राप्त करने के लिए कोकून को अक्सर जीवित ही उबलते पानी में डालकर मार दिया जाता है ।
आयुर्वेदिक चिकित्सा में लगभग 15–20% दवाओं में उपयोग होने
वाले पदार्थ जानवरों से प्राप्त होते हैं, दवाओं में अधिकांश तौर पर उपयोग किए जाने वाले उत्पाद गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, घोड़े, कुत्ते, हाथी और मनुष्यों के मल, मूत्र और दूध हैं। न केवल स्राव और उत्सर्जन बल्कि जानवरों के शरीर के अंग, जैसे कान के संक्रमण के लिए पानी में घिसे मोर के पैर, दर्द प्रबंधन में मालिश के लिए सुअर की चर्बी, आंखों की बीमारियों के लिए पानी में घिसे सांभर हिरण के सींग, पक्षाघात में मालिश के लिए कबूतर का खून, यौवन के लिए घुगी-कबूतर का मांस, काली खांसी के लिए कौवा और चमगादड़ का मांस, अस्थमा के इलाज के लिए गौरैया का मल, घाव के संक्रमण के इलाज के लिए कुत्ते का मांस, निमोनिया के इलाज के लिए हल्दी लगी बकरी की खाल और फ्रैक्चर को ठीक करने के लिए के रक्त की मालिश, अस्थमा के लिए लकड़बग्घा
के रक्त और मांस, गठिया के जोड़ों पर मालिश के लिए गधे का रक्त, अस्थमा और कटिस्नायुशूल के लिए सियार का मांस, गठिया को ठीक करने के लिए सियार-रक्त की मालिश, गंजापन को ठीक करने के लिए नीम के पत्तों कि चटनी में मिला जिन्दा ही भुने गए चूहे की पुल्टिस आदि। (https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC1636027;
https://nopr.niscpr.res.in/bitstream/123456789/25966/1/IJTK%202(4)%20346-356.pdf),
यानी आयुर्वेद शुद्ध शाकाहार का प्रचार नहीं करता है ।
इसी तरह, यूनानी दवा भी चिकित्सीय तत्वों के रूप में कई पशु उत्पादों का उपयोग करती है जैसे, तंत्रिका संबंधी विकारों, मिर्गी और हिस्टीरिया को ठीक करने के लिए पशुओं के वृषण का स्राव (वीर्य), खारे पानी में मैरीनेट करके सुखाये हुए केंचुवे कामोद्दीपक के रूप में, एम्बर (व्हेल मुंह से प्राप्त स्राव) टेटनस से हुई संवेदना की हानि, ह्रदय कि अनियमित धड़कन और यौन दुर्बलता को नियंत्रित करने के लिए, मछली के अर्क का उपयोग कार्डियक टॉनिक और कामोद्दीपक
के तौर पर एवं रक्त परिसंचरण में सुधार और पक्षाघात आदि के उपचार के लिए कबूतर का रक्त और मांस यूनानी चिकित्सा में वर्णित है
।.
यूनानी चिकित्सा विज्ञान में न केवल पशु उत्पाद बल्कि जोंक (जोड़ों का दर्द), ततैया और मक्खियों के बच्चों (कीड़े, संक्रमित घावों के लिए) जैसे जीवों का उपयोग भी किया जाता है (https://applications.emro.who.int/imemrf/Hamdard_Med/Hamdard_Med_2012_55_1_5_9.pdf)
।
चीनी चिकित्सा जंगली और लुप्तप्राय जानवरों और उनके उत्पादों जैसे बाघ की हड्डियाँ, बाघ का लिंग, मृग की हड्डियाँ, भैंस या गैंडे के सींग, हिरण के सींग, अंडकोष और कुत्ते के लिंग, भालू या साँप के पित्त, सांप का पित्त एवं पैंगोलिन का रक्त और भ्रूण का
भी चिकित्सीय प्रयोग करके पशुओं के प्रति और भी क्रूर सिद्ध होती लगती है (https://pubmed.ncbi.nlm.nih.gov/12801499/#:~:text=Traditional%20Chinese%20medicine%20(TCM)%20has,dog%2C%20bear%20or%20snake%20bile)। पारंपरिक चीनी चिकित्सा (टीसीएम) में, गैंडे के सींग का उपयोग बुखार, में ऐंठन और प्रलाप के इलाज के लिए किया जाता है, , बाघ की हड्डियों का उपयोग गठिया और अन्य सम्बंधित बीमारियों के इलाज के लिए मद्य में निर्मित दवाओं में किया गया है, बाघ के लिंग के सूप का उपयोग पौरुष बढ़ाने के लिए किया जाता है, भालू के पित्त से लेकर यकृत की बीमारियों और सिरदर्द के लिए, कस्तूरी हिरण की कस्तूरी का उपयोग रक्त परिसंचरण को बढ़ावा देने और त्वचा संक्रमण और पेट दर्द का इलाज करने के लिए किया जाता है, और समुद्री घोड़े का गुर्दे की बीमारियों, और रक्त संचार समस्याओं और नपुंसकता के लिए (https://www.britannica.com/explore/savingearth/traditional-chinese-medicine-and-endangered-animals-2) किया जाता है ।
इसलिए, आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाने वाली दवाओं, टीकों और अन्य चिकित्सीय पूरकों के संबंध में आस्था, धर्म और जातीय मूल्यों के प्रश्नों को अलग रखा जा सकता है क्योंकि आधुनिक चिकित्सा और चिकित्सीय पद्यति मानव स्वास्थ्य एवं विकास के लिए किसी भी आस्था और धर्म की तुलना में ज्यादा आवश्यक और कहीं उन्नत और आवश्यक हैं और एक नए सार्वभौमिक धर्म की उत्पत्ति का संकेत भी है ।